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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १६३ 1 भी नहीं है । जैसे आकाश, काल आदि ये व्यतिरेकद्रष्टांत हैं। नित्य ही ज्ञानका आश्रय न eta ऐसा आकाश आदिके समान सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं है ( उपनय ) तिल कारणसे नित्य ही ज्ञाता है | ( निगमन) इस अपन सिद्ध करोगे तब तो आप इस बातका दीर्घकाल तक विचार करे कि वह परमार्थरूपसे ज्ञानसे भेद होने पर भी सृष्टिनिर्माता ईश्वर ही ज्ञानका आश्रय कैसे कर दिया गया है ? आकाश, घट, पट आदि भी ज्ञानाधार क्यों न बन जायें ?, ईश्वर में ही क्या विलक्षणता है ? जिससे कि यही ज्ञानका आधार माना जाता है। ऐसी दशांने तुम्हारा हेतु संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास हो जाता है इस बातका आप बहुत दिन तक सोचकर उत्तर देना । समवाय कृतमिति चत् समवायः किमविशिष्टो विशिष्टो वा ? प्रथविकल्पोऽनुपपन्नः कस्मात् - यदि नैयायिक यह कहें कि समवायसम्बन्ध होनेसे ईश्वरके ही ज्ञानकी आश्रयता कर दी जाती है तो हम जैन पूंछते है कि वह समवाय क्या विशेषतारहित सामान्य समवाय ही लिया है ? या ईश्वर में रहनेवाला कोई विलक्षण समवाय है ? बताओ, यदि आप पहिला पक्ष लोगे, तब तो ईश्वर में ही ज्ञानकी अधिकरणता सिद्ध नहीं हो सकती है, क्योंकि --- समवायो हि सर्वत्र न विशेषकृदेककः । कथं खादीनि संत्यज्य पुंसि ज्ञानं नियोजयेत् ॥ ७० ॥ आपने सब जगह एक ही समवाय माना है, वह शुद्ध अकेला किसीके साथ पक्षपात करके कोई विशेषता नहीं कर सकता है । अतः एक वही समवाय निकटवर्ती आकाश, काल आदिको नितान्त छोडकर उस भिन्न पढे हुये ज्ञानगुणका आत्मामें ही संबन्ध करा देने में नियुक्त होजाय, यह कैसे हो सकता है ? विधारिये । यस्मात् “ सर्वेषु समवायिष्क एवं समवायस्तच्चं भावेन व्याख्यातम् " इति वचनात् । तस्मासेषां विशेषकृन्न नाम येन पुंस्थेव ज्ञानं विनियोजयेदाकाशादिपरिहारेण इति बुद्धयामहे । जिस कारण से कि योगोंने रूप, रस, शब्द, ज्ञान, परिणाम, आत्मल, घटल, इलन, चलन आदि गुण, जाति, क्रियाओंके समवाय - सम्बन्धवाले पृथ्वी, आत्मा, आकाश आदि सम्पूर्ण समवायि तत्त्वरूपसे एक ही समवाय माना है । तभी तो आपके कणाद ऋषिके बनाये हुए वैशेषिक दर्शन में परमार्थरूप तत्वदृष्टिसे या सत्ताके एकपन सिद्ध करनेसे एक ही समवायतत्त्वका
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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