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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः पड़ेगा | अब आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकार मीमांसक कहेंगे तो उनका वह कहना सिद्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि अस्मदादिकों को एकांत रूपसे सर्वथा प्रत्यक्ष हो जाना करणज्ञानमें अथवा अन्य घट, पट आदि वस्तुओं में भी स्वीकार नहीं किया गया है। पदार्थों का हम लोगों को पूर्ण रीतिले प्रत्यक्ष हो जाना प्रतीतियोंसे विरुद्ध है। प्रसिद्ध माने गये घट, पट आदिकों का भी हम सर्वाङ्गीण प्रत्यक्ष नहीं कर सकते हैं। भीतरका अंश, परलाभाग, सूक्ष्म अर्थपर्यायें और अविमागत्रतिच्छेदों को हमारी इंद्रियां विषय नहीं कर पाती हैं। मांटे द्रव्य पदार्थको दृष्टि ही ज्ञानका हम लोगोंको प्रत्यक्ष होता है। किंतु सूक्ष्मपर्याय पदार्थोंकी दृष्टिसे प्रत्येक क्षणमें परिणमन करती हुयीं शक्तियां, अविभागप्रतिच्छेद, अगुरुलघु आदिका तो हम लोगोंको प्रत्यक्ष नहीं होता है वे केवल ज्ञानके विषय हैं । उस प्रकरण में अपना और अर्थका निश्चय करना स्वरूप ज्ञान है फल जिसका, ऐसे स्वसंवेदन प्रत्यके विषय होरहे ज्ञानरूप फलको प्रमाणसे अभिन्न कहने वाले स्याद्वादियोंके मतमें करणरूप प्रमाणात्मक ज्ञान भला अप्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? भावार्थ -- फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना मानने पर उससे अभिन्न करणज्ञानका प्रत्यक्ष होना न्यायप्राप्त हो जाता है । प्रभाकर फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना माने और उससे अभिन्न होरहे करण ज्ञानका प्रत्यक्ष न मानें यह कैसे हो सकता है ! । यानी अयुक्त है । ४४८ न च येनैव रूपेण तत्प्रमाणं तेनैव फलम्, येन विरोधः । किं तर्हि १ साधकतमत्वेन प्रभाणं साध्यत्वेन फलम् साधकतमत्वं तु परिच्छेदनशक्तिरिति प्रत्यक्षफलज्ञानात्मकत्वात् प्रत्यक्ष शक्तिरूपेण परोक्षम्, ततः स्यात् प्रत्यक्षं स्यादप्रत्यक्ष मित्यनेकान्तसिद्धिः । ' यदि यहां कोई कटाक्ष करे कि जिस ही स्वभावसे ज्ञानमें प्रमाणता है और उस ही स्वभावसे ज्ञानमें फलपना भी मानोगे, तब तो उन दोनों विरुद्ध स्वभावका ज्ञानमें रहने का विरोध होगा, सो यह कटाक्ष ठीक नहीं है। जैन लोग जिस ही स्वभावसे प्रमाणपना मानते हैं, उस ही स्वभावसे फलपना नहीं मानते हैं, जिससे कि विशेष होवे, तब तो क्या मानते हैं ! इसका उत्तर सुनिये, प्रमितिक्रिया के प्रति प्रकृष्ट उपकारकपनेसे ज्ञानमें प्रमाणपना है और साघने योग्य प्रयोजन की अपेक्षा से फलपना है, एक मल्ल अपने शरीरके व्यायामसे उस ही शरीरको पुष्ट करलेता है | शरीरमें पुष्ट कराने की अंग उपांगी शक्ति भिन्न हैं और फल रूप पोषण शक्ति निराली है । ज्ञानमें विद्यमान हो रही रूप को और अर्थको परिच्छेदन करने की शक्ति को ही करणपना है । वह ज्ञान, करणरूप प्रत्यक्ष प्रमाणस्वरूप है और ज्ञप्ति रूप फलज्ञान स्वरूप भी है । तहां फलज्ञानकी अपेक्षासे वह ज्ञान प्रत्यक्ष है और करणत्य शक्तिके स्वरूपसे वह ज्ञान परोक्ष है । इस कारण से वह प्रमाणज्ञान किसी अपेक्षा प्रत्यक्ष है और अन्य अपेक्षासे अप्रत्यक्ष यानी परोक्षरूप भी है । इस प्रकार अनेकांकी सिद्धि होजाती है । अनेकांस से तत्त्वकी सिद्धि होरही है । अनेकांतका सर्वत्र साम्राज्य है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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