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________________ तस्वाचिन्तामणिः स्वात् पापकादेर्दहनादिशक्तिवत्, न साध्यविकलदाहरणं पावकादिदहनादिशक्तेः प्रत्यक्षत्वे कस्यचित्तत्र संशयानुपपत्तेः। यहां मीमांसकोंका स्वपक्ष अवधारण पूर्वक आक्षेप है कि जैन लोग ज्ञानशक्तिका प्रत्यक्ष होना यदि इष्ट करते हैं, तब तो पदार्थों की सम्पूर्ण शक्तियोंके प्रत्यक्ष होजानेका प्रसंग आता है। अतः ये शक्तियां अस्मदादि छद्मयोंको अनुमानसे जानने योग्य हैं इस प्रसिद्ध सिद्धांतका विरोध हो जावेगा, तथा अतीन्द्रिय शक्तियोंका प्रत्यक्ष करखेना इस अनुमान प्रमाणसे बाधित भी है। उसी अनुमानको सष्टरीत्या कहते हैं कि आत्माकी बाननेकी शक्ति (पक्ष ) हम सरीख चर्मचक्षुवाले पुरुषोंके प्रत्यक्षगोचर नहीं है। साध्य ) क्योंकि वह शक्ति है । ( हेतु ) जैसे कि अमि, अन्न, जल आदि की दाहकत्व, पाचकत्र, भूखको दूर करने, प्यासको दूर करनेकी शक्तियां दखी नहीं जासकती हैं, ( अन्वय दृष्टांत ) किंतु दाह होना, पाक होना, मूख मिटजाना, प्यास दूर होना आदि उत्तरकालवी फलरूप कार्योसे शक्तियोंका अनुमान करलिया जाता है। अभिकी दाइकरवशक्तिरूप उदाहरण यहां प्रत्यक्ष न होना रूप साध्यसे रहित नहीं है, यदि आम, अन्न, जल आदिककी दाहकख, क्षुधा निवारकत्व आदि शक्तियोंका प्रत्यक्ष होगया होता तो किसी भी पुरुषको उनमें संशय उत्पन्न होना नहीं बन सकता था। किंतु अनेक कारणों में कार्यके उत्पन्न हो सकनेका संशय बना रहता है। अतः प्रतीत होता है कि कारणोंकी शक्तियां प्रत्यक्षप्रमाणका विषय नहीं हैं। अन्यथा सर्व ही औषधि सेवन करने वालोंको नीरोगता प्राप्त हो जाती। सभी कारण अव्यर्थ होजाते। यदि पुनरप्रत्यक्षा सानशक्तिस्तदा तस्याः करपज्ञानत्वे प्रभाकरमतसिद्धिा, तत्र करणज्ञानस्य परोक्षस्वव्यवस्थितेः फलज्ञानस्य प्रत्यक्षलोपगमात्, ततः प्रत्यक्षं करणज्ञानमिच्छतां न तच्छक्तिरूपमेषितव्यं स्थाद्वादिभिरिति चेत् , तदनुपपन्नम्, एकान्ततोऽस्मदादिमत्यक्षत्वस्य करणज्ञानेऽन्यत्र वा वस्तुनि प्रतीतिविरुद्धत्वेनानभ्युपगमात्, द्रव्यार्थतो हि ज्ञानममदादेः प्रत्यक्ष, प्रतिक्षणपरिणामशक्त्यादिपर्यायार्थतस्तु न प्रत्यक्षम् , तत्र स्वार्थव्यवसायात्मकंज्ञानं खसंविदितं फलंप्रमाणामित्रं वदतां करणज्ञान प्रमाणं कथमप्रत्यक्षं नाम ! यदि फिर जैन लोग ज्ञानशक्तिका प्रत्यक्ष नहीं होता है, ऐसा मानेगे और उस अप्रत्यक्ष ज्ञानशक्तिको करणरूप ज्ञान मानेगे तबतो हम मभाकर मतानुमायी मीमांसकोंके मतकी सिद्धि हो गयी, क्योंकि वहां मीमांसकोंके मतमें ज्ञप्तिके करणरूप प्रमाणज्ञानको परोक्षपना व्यवस्थित किया है । प्रभाकरोंने शतिरूप फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना स्वीकार किया है उस कारणसे प्रमितिके करण होरहे प्रमाणज्ञानका प्रत्यक्ष होना साहने पाले स्याद्वादी जैनोंको वह करणवान शक्तिरूप इष्ट नहीं करना चाहिये । इस प्रकार स्थाद्वावियोंको झानशक्ति और ज्ञानका मेद मानना ही अनुरूक
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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