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________________ वार्थ चिन्तामणिः १४९ यदा तु ममाणाद्भिनं फलं दानोपादानोपेक्षाज्ञानलक्षणं तदा स्वार्थव्यवसायात्मकं करणसाधनं ज्ञानं प्रत्यक्षं सिद्धमेवेति न परमतप्रवेशस्तच्छतेरपि सूक्ष्मायाः परोक्षत्वात् । sive किसीका यह प्रश्न होसकता है, कि अज्ञाननिवृत्तिरूप अभिन्न फलकी अपेक्षा से करणज्ञानमें आपने प्रत्यक्षपना नियत किया, किंतु प्रमाणका त्याज्य पदार्थ में त्याग और ग्रहण करने योग्य उपादान तथा उपेक्षणीय पदार्थ में उपेक्षा बुद्धिरूप फल जब अभीष्ट होगा उस समय तो फलका भले ही प्रत्यक्ष होजाय। किंतु फलसे सर्वथा मित्र माने गये करण ज्ञानका कैसे भी प्रत्यक्ष न हो सकेगा। इसका समाधान इस प्रकार है कि--जब प्रमाणसे छान उपादान और उपेक्षा बुद्धिरूप भिन फल इट किया गया है, तब अपने और अर्थको निम्धय करना स्वरूप और करणमे युट् प्रत्यम करके साधा गया वह ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे प्रत्यक्षरूप सिद्ध ही है । पहिले ज्ञानशक्तिको ही परोक्ष कहा गया था ज्ञानको नहीं । यों भी सर्वथा प्रत्यक्ष मानने पर एकांतपक्ष हो जाने से स्वाद्वादियों के मतमै अन्य एकान्तवादियोंके मतका प्रवेश नहीं हो सकता है । क्योंकि उस ज्ञानकी सूक्ष्म अतीन्द्रिय शक्तियोंका सर्वज्ञके अतिरिक्त किसीको भी प्रत्यक्ष नहीं होसकता है । अतः वह व्यक्तिला ज्ञान जोश भी है। तदेतेन सर्वे कत्रादिकारकस्वेन परिणतं वस्तु कस्यचित्मत्यक्षं परोक्षं च कत्रादिशक्तिरूपतयोक्तं प्रत्येयं ततो ज्ञानशक्तिरपि च करणत्वेन निर्दिष्टा न खागमेन युक्त्या च विरुदेवि एक्तं । --- उस कारण इस पूर्वोक्त कथनसे यह बात भी निर्णीत हुयी समझनी चाहिए कि कर्ता कारक, कर्मकारक आदिपने परिणमन करती हुर्बी सम्पूर्ण वस्तुएं मोठे द्रव्यकी अपेक्षा से ही किसी के मी प्रत्यक्ष के विषय हैं। किंतु स्वतंत्ररूप कर्तृत्वशक्ति और बन जानारूप कर्मत्व शक्ति आदि स्वभावोंसे सर्व पदार्थ हम लोगों को परोक्ष है, इस पातको ध्यान में रखना चाहिये । सम्मुख खड़ी हुयी भीतका या चौकीका भी हमको पूर्ण रीतिसे प्रत्यक्ष नहीं है। भावार्थ - घट, पर, भित्ति व्यादि स्पष्ट प्रत्यक्ष के विषय माने गये पदार्थ मी बहुभागों में हम लोगों के प्रत्यक्ष नहीं हैं। इनकी शक्तियों और अविभाप्रतिच्छेदोका हमको अनुमान और आगमसे ही ज्ञान हो सकता है। उस कारणसे करणपने करके कही गयी आत्माकी ज्ञानशक्ति भी श्रेष्ठ सर्वोक्त आगम प्रमाणसे और अनुकूक तर्कवाली युक्तिसे सिद्ध है, विरुद्ध नहीं है। इस प्रकार हमने बहुत अच्छा कहा था कि अपने और अर्बको ग्रहण करवी आमाकी शक्ति ही ज्ञान है और वह मोक्षका मार्ग है । 67 आत्मा चार्थमहाकारपरिणामः स्वयं प्रभुः । ज्ञानमित्यभिसन्धानकर्तृ साधनता मता ॥ २३ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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