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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः 'तस्योदासीनरूपत्वविवक्षायां निरुच्यते । भावसाधनता ज्ञानशब्दादीनामबाधिता ॥ २४ ॥ आत्मा स्वयं अर्थ सविशेष ग्रहण करनेरूप पर्यायको धारण करने में स्वतंत्र रूप से समर्थ होता है, तब वह ज्ञप्ति क्रियाको बनाने में एकाग्र लगा हुआ आत्मा ही ज्ञान है । इस प्रकार विवा होनेपर ज्ञान शब्दकी फर्ता में युद् प्रत्यय करके सिद्धि मानी गयी है । और जब उस आत्माके कर्ता, कर्म, करण पनेकी नहीं अपेक्षा कर वह ज्ञप्ति क्रिया में उदासीनरूपसे विवक्षित होता है, उस समय ज्ञान और दर्शन आदि शब्दोंकी भाव युट् प्रत्यय करके बाधारहित निरुक्ति कर दी जाती है | जाननारूप अपरिस्पंद क्रिया ही ज्ञान है और श्रद्धान करनारूप क्रिया ही दर्शन है। यह मादमै निरुक्ति करनेसे अर्थ निकलता है । नतु च बानातीति ज्ञायायेति विवक्षायां करणमन्यद्वाच्यं निःकरणस्य कर्तृत्वायोगादिति चेन्न, अविभक्तकर्तृकस्य स्वशक्तिरूपस्य करणस्याभिधानात् । हां शंका है कि कठीयुट् प्रत्यय करने पर जो अर्थों को जान रहा है, वह आत्मा ज्ञान है, ऐसी विवक्षा करने पर आपको कर्ता से भिन्न दूसरा करण कहना पडेगा। बिना करणके कर्ता किसी भी क्रियाको नहीं बनाता है | बसूला के बिना तक्षक ( बदई ) कालको छील, खुरच नहीं सकता है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि यहां कर्तासे सर्वथा भिन्न नहीं ऐसे अपनी शक्तिरूप करणका कथन किया है। लोइकी लाठ अपने बोझसे स्वयं लचक रही है । वृक्ष अपने बोझसे स्वयं झुक गया है, इन स्थलोंपर कर्तासे अभिन्न भी करण हो जाते हैं । भावसाधनतायां ज्ञानस्य फलत्वव्यवस्थितेः प्रमाणत्वाभाव इति चेत्र तच्छतेरेव प्रमाणत्वोपपत्तेः । शुद्ध वात्वर्थ रूप अर्थको प्रगट करने वाले भावमें युद्ध प्रत्यय करके ज्ञान शब्दकी सिद्धि होने पर तो ज्ञानको फलपना व्यवस्थित हो जावेगा। ऐसा होने पर ज्ञानको करणरूप प्रमाणपनेपा अभाव है, यह कटाक्ष तो भी ठीक नहीं है। क्योंकि उस साधकलमपनेकी शक्तिको ही ज्ञानमें प्रमाणपना सिद्ध किया जा चुका है । ज्ञप्तिकिया के प्रतिपादन करते समय भी ज्ञानमें करणपनेकी शक्ति विद्यमान है। तीक्ष्ण तलवार काष्ठको प्रधान रूपसे काट रही है। उस समय पैनापन और कालिम्प शक्ति अप्रगट होकर करणरूपसे काम कर रही है । तथा चारित्रशद्वोऽपि ज्ञेयः कर्मानुसाधनः । कारकाणां विवक्षातः प्रवृत्तेरेकवस्तुनि ॥ २५ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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