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________________ तत्त्वाचिन्तामणिः ५१५ आत्मामें उनका कारण बैठा हुआ है कार्यकारणमाव पक्षपात नहीं चलता है। कारण अवश्य कार्योंको उत्पन्न करेगा आप नैयायिकोंके यहां विना फल दिये कमै झडना नहीं माना गया है । ___ यदि पुनः पूर्वजन्मविपर्ययादोषस्ततोप्यधर्मस्तस्मादिह जन्मनि मिध्यामानं चतोऽपरो दोषस्वतोप्यधर्मस्तस्मादपरं मिथ्याधानमिति वावदस्य संवानेन प्रवृत्तिवित्तत्वज्ञानं साक्षादुत्पयते इति मतं, तदा तवज्ञानकालेऽपि तत्पूर्वानन्तरविपर्यासाहोपोत्पतिस्ततोप्पधर्मवस्तोऽन्यो विपर्यय इति कुतस्तत्वज्ञानादनागतविपर्ययादिनिवतिः । फिर भी यदि आप यो मान कि पहिले जन्मके मिथ्याज्ञानसे राग, द्वेष, उत्पन्न होगे और उन दोषोंसे आलामे पाप पैदा होगा । उस पापसे इस जन्ममै फिर मिथ्याज्ञान होगा। उस मिय्या ज्ञानसे दूसरा दोष, उससे भी पाप, फिर उस पापसे भी तीसरा मिथ्याशान इस प्रकार तद्भवमोक्षमामीके भी तबतक संसानरूपसे मिथ्याज्ञान आदिकी प्रवृत्ति होती रहेगी, जबतक कि योगीक साक्षात् प्रत्यक्ष करनेवाला तत्वोंका ज्ञान उत्पन्न होवेगा, अर्थात् अबतक तत्वोंका ज्ञान न होगा, सबतक धारा चलेगी। पीछे संतान रुक आवेगी। आप नैयायिक ऐसा मानेगे, तब तो तत्वज्ञानके समयमें भी कार्यकारणभावसे चले आये उस अव्यवहित पूर्ववर्ती विपर्ययज्ञानसे दोषोंकी उत्पति होगी और उन दोषोंसे मी अधर्म उत्पन्न होगा और उस अधर्मसे फिर एक निराला विपर्ययज्ञान पैवा होगा । इस प्रकारकी पास अनंतकालतक चलती रहेगी। आप बिना फल दिये हुए पापका नाश मानते नहीं है । कारण है तो कार्य अवश्य होगा। भला ऐसी दशा तत्त्वोंके ज्ञानसे भविध्यमे होनेवाले मिथ्याज्ञान, दोष, पुण्य, पाप, पुन: जन्म लेना आदि अनेक प्रकारके दुःखोंकी निधि कैसे हो सकेगी: आप नैयायिक ही इसका उसर दो । वितथामहरागादिप्रादुर्भावनशक्तिभृत् । मौलो विपर्ययो नान्त्य इति केचित्प्रपेदिरे ॥ १०१ ।। कोई कोई नैयायिक यो समझे हुए हैं कि पहिला मूलभूत जडका विपर्ययज्ञान तो अखत्म तत्का झूठा शान कराना दल, राग, पाप, दुःल, जन्मलेना आदि शास्त्रारूप कार्योंके प्रकट करानेवाली शक्तिको धारण करता है। किंतु अंतमें होनेवाला विपर्ययज्ञान तो दोष, पाप, आदिको उत्पन्न नहीं करा सकता है। भावार्य---कुदेवको देव समझना, अतत्त्वको तत्व समझना आदि चगकर किये गये विपर्यास तो राग, पाप, पुनर्जन्म आदिके कारण हैं, किंतु अंतका फलरूप विपयेय ज्ञान फिर राग आदिकी संततिको नही चलाता है, जैसे कि जैनोंको भी दृट्यकर्मसे भावकर्म और मावकर्भसे द्रव्यकर्म की धाराका प्रबाह अंतमें तोडना पडता है । इस प्रकार कोई समझ बैठे हैं। मौल एव विपर्ययो वितथाग्रहरागादिप्रादुर्भावनशक्तिविभ्राणो मिथ्याभिनिवेशात्मकं दोषं जनयति, स चाधर्ममधर्मश्च जन्म तच्च दुश्वात्मकं संसारं, न पुनरन्त्यः 69
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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