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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः यदि पुनर्न योगिनः पूर्वोपाचो विपर्ययोऽस्ति नापि दोषस्तस्य क्षणिकत्वेन स्वका थमदृष्टं निर्वयं निवृत्तेः, किं तदृष्टमेव तत्कृतमास्ते तस्याक्षणिकत्वादन्त्येनैव कार्येण विरोधित्वाचत्कार्यस्य च जन्मफलानुभवनस्योपभोगेनैव निवृत्तेस्ततः पूर्व तस्यावस्थिति. रिति मतं, तदा तवनानोत्पत्तेः प्राक्तस्मिन्नेव जन्मनि विपर्ययो न स्यात्पूर्वजन्मन्येव तस्य निवृत्तत्वात्, तद्वदोषोपीत्यापतितं, तत्कृतादृष्टस्यैव स्थितेः न चैतद्युक्तं, प्रतीतिविरोधात् । फिर यदि आप यों कहेंगे कि तत्त्वोंको जाननेवाले योगी पुरुषके पहिले जन्म ग्रहण किया हुआ विपर्ययज्ञान नहीं है और न उनके कोई राग आदिक दोष भी है। क्योंकि विपर्यय और दोष तो आत्माके विशेष गुण हैं । विभु द्रव्योंके प्रत्यक्ष करने योग्य ज्ञान, सुख, दुःख आदिक विशेष गुण क्षणिक होते हैं। " योग्यविभुविशेषगुणानां स्वोत्तरवर्तियोग्यविभुविशेषगुणनाश्यत्वनियमात् " इससे वे दो क्षण ठहरकर तीसरे क्षणमै नष्ट हो जाते हैं। अतः वे अपने कार्य पुण्य, पाप, को पैदा करके शीघ्र ही निवृत्त हो जाते हैं, तब तो शेष क्या रह जाता है। इसका उत्तर यह है कि उनका किया हुआ पुण्यपाप ही आत्मामें विद्यमान रहता है। क्योंकि उस पुण्य, पाप गुणको क्षणिक नहीं माना गया है । वे प्रत्यक्ष योग्य नहीं है । पहिले सञ्चित किये हुए पुण्यपापोंका अपने अंतिम कार्यके साथ विरोध है । भावार्थ-पुण्य पाप अपना कार्य कुछ दिनोंतक या देरतक करते करते जब अंतका कार्य कर चुकते हैं, उस अंतिम कार्यसे उन पुण्य पापोंका नाश हो जाता है। अतः योगीके भी पूर्वसंचित कोसे उत्पन्न हुए जन्म लेकर फल भोगनारूप उपमोगों करके ही उस पुण्यपापकी निवृत्ति हो सकेगी । अत: तत्त्वज्ञान हो जानेपर भी जबतक वर्तमान मनुष्य जन्म रहता है, तबतक उससे पहिले कालम योगीकी स्थिति बनी रहती है। और वे निदोष सर्वज्ञ शरीरवचनधारी होकर विनय करनेवाले जीवोंके लिये तत्वोपदेश करते हैं। इस प्रकार तुम्हारा मंतव्य है, तब तो हम जैन कहते हैं कि सब तो तत्त्वज्ञान की उत्पत्तिसे पहिले उस अहीत जन्ममें ही विपर्यय ज्ञान न रह सकेगा। क्योंकि वह तो पूर्वजन्ममें ही निवृत्त हो चुका है और वैसे . ही उस जन्ममें राग आदिक दोष भी नहीं बनेंगे, यह बात आपके कहनेसे आपडती है। आप तो उस जन्ममें केवल पूर्वजन्मके उन विपर्यय और रामसे किये गये अष्टकी ही स्थिति मानते हैं। किंतु यह आपका मानना तो युक्त नहीं है । पण्डिताईके पहिले मूर्खता अवश्य है । तत्त्वज्ञानसे पहिले मी विपर्यय, राग, आदि दोषोंको न स्वीकार करना यह प्रतीतियोंसे विरुद्ध है। किसी निर्णीत किये गये कार्यकारणभावका, व्यक्तिकी अपेक्षासे, भंग नहीं होता है । सेठके घरकी आग ठण्डी हो और दरिद्रके घरकी आग गरम होवे, पेसा नहीं है। सूर्य तथा चन्द्रमाको घाम और चांदनी जैसे राजाके महलों में है, वैसी ही निर्धनोंकी झोंपडियों में है। चाहे कोई मी परमपूज्य व्यक्ति क्यों न हो तत्त्वज्ञानके पहिले उसके दोष और विपर्यय अवश्य विद्यमान रहेंगे। क्योंकि
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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