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तत्वार्थचिन्तामणिः
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न हि पूर्वोपाचो विपर्यासस्तिष्ठति न पुनस्तन्निबन्धनः पूर्वोपाच एव दोषादिरिति प्रमाणमस्ति तत्स्थितेरेव प्रमाणतः सिद्धेः ।
पहिले जन्म में प्रहण किया हुआ मिथ्या अभिनिवेश तो योगीके ठहरा रहे और उसको कारण मानकर पहिले जन्मर्भे धारासे उत्पन्न हुए ही दोष, पाप, दुःख, आदि फिर न होवें, इसमें कोई प्रमाण नहीं है । उस विपर्यासकी स्थिति से ही दोष, जन्म, आदिका होना प्रमाणसे सिद्ध होता है । कारण है तो कार्य होगा ही, अतः अकेले मिध्याज्ञानसे संसारकी व्यवस्था और अकेले तत्त्वज्ञानसे मोक्षकी व्यवस्था नहीं बन सकती है ।
तथा सति कुतो ज्ञानी वीतदोषः पुमान्परः ।
तत्त्वोपदेशसन्तानहेतुः स्याद्भवदादिषु ॥ १०० ॥
वैसा होनेपर तत्त्वज्ञानी भी विपर्यय और दोषोंकी जब सम्मावना है तो दोषोंसे रहित होकर उत्कृष्ट, तत्त्वज्ञानी, पुरुष मला तत्त्वोंके उपदेशकी आजतक संतान बने रहनेका कारण आप नैयायिक, वैशेषिक आदिको में कैसे बनेगा ? बताओ । इसका आप विचार कीजिये। हां ! सदैव अशा उपदेश आप लोगों प्रत्रता रहेगा ।
पूर्वोपातदोषादिस्थितौ च तत्त्वोपदेश सम्प्रदायाविच्छेद हेतोर्भवदादिषु विनयेषु सर्वक्षस्यापि परमपुरुषस्य कुतो वीतदोषत्वं येनाझोपदेश विमलम्मनशकिभिस्तदुक्त प्रतिपत्तये प्रेक्षावद्भिर्भवाः स एव मृग्यते ।
तत्त्वज्ञानीके पूर्व जन्मों में ग्रहण किये गये राग, द्वेष, आदि दोष और पाप, दुःख आदिकी स्थिति रहनेपर तत्रोपदेशकी आप लोगोंने आम्नायके न टूटनेके कारण माने गये उस परमपुरुष सर्वेज्ञको भी दोषों से रहितपना भला कैसे सिद्ध होगा ! बतायो । जिस सर्वज्ञकी आप नैयायिक, वैशेषिक आदिक विनीत होकर भक्ति करते हैं, जिससे कि विचारक विद्वानों करके उसी सर्वज्ञका अन्वेषण किया जाय । यदि आपके माने हुए सर्वेझ परमपुरुष निर्दोषपना सिद्ध होगया होता, तब तो विचारशील बुद्धिवाले आप लोगोंके द्वारा वह सर्वज्ञ ही उसके कहे हुए तत्त्वोंका विश्वास करने के लिये ढूंढा जाता। किंतु जिन विचारशीलोंको अज्ञ, सदोष, कल्पित, सर्वज्ञके आज्ञापिस उपदेश में घोला होजानेकी शंका होरही है, उनके द्वारा उस सर्वशको ढूंढने की आवश्यकता न होगी। कोई भी विचारशील वादी सदोष और प्रतिज्ञान करानेवाले पुरुषको तत्रोपदेशकी आम्नाके न टूटने कारण नहीं मानता है । भावार्थ --- सदोष ज्ञानीसे समीचीन तत्वोंके उपदेशकी सन्तान नहीं चढ़ सकती है।