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________________ तस्थार्थचिन्तामणिः " जन्मलेना अनेक प्रकारके शारीरिक, मानसिक, दुःखका कारण है । इस प्रकार संसारका जडरूप विपर्वण्याचही है. उसी से कम कारणोंकी शाखायें चलती हैं । दुःखजन्म प्रतिदोष मिथ्याज्ञानानामुतरोवरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः " ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार जिन नैयायिक आदि वादियोंने माना है, उनके यहां पहिले यह बतलाओ कि तत्त्वज्ञानके उत्पee होनेपर भला योगीका इस संसार में ठहरना कैसे बनेगा ? कारणके न रहनेपर कार्यकी उत्पत्ति होने का विरोध है, अर्थात् शरीर, आयु, जन्म धारण करना, आदि सबका मूलकारण विपर्ययज्ञान था। जब तत्वज्ञान द्वारा विपर्ययका जसे नाश हो गया तो फिर भला संसार में ठहरना कैसे होगा ? कारण नहीं है तो कार्य किस बलासे पैदा होगा 1 कहिये । ५४२ संसारे तिष्ठतस्तस्य यदि कश्चिद्विपर्ययः । सम्भाव्यते तदा किन्न दोषादिस्तन्निबन्धनः ॥ ९९ ॥ संसारमें ठहरते हुए उस योगीके यदि कोई न कोई विपर्ययज्ञान सम्भावित किया जावेगा तो उस योगी विपर्ययको कारण मानकर उत्पन्न होनेवाले दोष, पुण्य पाप, जन्म छैना, दुःख भोगना, आदि कार्य भी क्यों नहीं माने जावेगे ! समर्थ कारण अपने नियत कार्यको अवश्य उत्पन्न करेगा । समुत्पतत्त्वज्ञानस्याप्यशेषतोऽनागतविपर्ययस्यानुत्पत्तिर्न पुनः पूर्वमवोपात्तस्य पूर्वाधर्मनिबंधनस्य ततोऽस्य मवस्थितिर्घटत एवेति सम्भावनायां तद्विपर्ययनिबंधनो दोषस्तदोष निबंधनं चाएं, तदस्टनिमित्तं च जन्म, तज्जन्मनिमित्तं च दुःखमनेकप्रकारं किन सम्भाव्यते १ नैयायिक कहते हैं कि तत्त्वज्ञानके भले प्रकार उत्पन्न हो जानेपर भविष्य में आनेवाले विपर्ययकी उत्पत्ति होना पूर्ण रूपसे रुक गया है, किंतु फिर पूर्व जन्मों में ग्रहण किये हुए पहिले अघको कारण मानकरं उत्पन्न होनेवाले विपर्ययका उत्पाद होना नहीं रुका है, वे तो फल देकर रेंगे। विना फल दिये सञ्चित कर्म नहीं नष्ट होते हैं । अतः उस पूर्व अदृष्ट नामक कारणके द्वारा उत्पन्न किये गये विपर्यय ज्ञानोंका उपभोग करते हुए इस योगीका संसारमै कुछ दिन तक ठहरना बन ही जाता है । ग्रंथकार समझाते हैं कि इस प्रकार नैयायिकों के प्रत्युत्तरकी सम्भावना होनेपर हम कहते हैं कि उस विपर्ययको कारण मानकर योगी राग आदिक दोष अवश्य पैदा हो जायेंगे और उस दोषको कारण मानकर पुण्य पाप भी उत्पन्न होगा और पुण्य पापके निमित्तसे जन्म तथा जन्मके निमित्तसे अनेक प्रकारके दुःख उस योगीके क्यों नहीं सम्भवते हैं ? अर्थात् ये कार्य भी तत्त्वज्ञानी हो जायेंगे । ऐसी दुःखित, दूषित अवस्थामै भला योगी समीचीन उपदेश कैसे देगा ? आप ही विचारो । 1 ,
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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