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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः विना कहे सिद्ध हो ही जाता है । अतः बाघक प्रमाणोंके न होनेसे संसारके कारणोंको तीनपना प्रसिद्ध ही है । इस ही कारण किन्हीं नैयायिकोंका यह कटाक्ष करना कि संसारके कारणोंमें जब तीनपना सिद्ध नहीं है तो मोक्षके कारणोंका मी तीनपना सिद्ध न होगा, यह उन नैयायिकों के न्यायपूर्वक देखनेपनको नहीं कहरहा है। वे केवल नाममात्रके नयायिक है। न्यायको जाननेवाले या न्यायपूर्वक क्रियाको करनेवाले ऐसे अर्थसे नैयायिक नहीं हैं। विपर्ययमात्रमेव विपर्ययावैराग्यमात्रमेव वा संसारकारणमिति व्यवस्थापयितुमशक्तेने संसारकारणत्रित्वस्य वाधाऽस्ति तथाहि अकेला विपर्ययज्ञान ही अथवा विपर्ययज्ञान और रागभाव ये दो ही संसारके कारण हैं, इसकी आप नैयायिक व्यवस्था नहीं कर सकते हैं । अतः संसारके कारणोंको तीनपना माननेकी कोई बाधा नहीं है । मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों ही संसारके कारण हैं। इसी बातको स्पष्टकर दिखलाते हैं। मौलो हेतुर्भवस्येष्टो येषां तावद्विपर्ययः । तेषामुद्भूतबोधस्य घटते न भवस्थितिः ॥ ९८ ॥ जिन नैयायिक, सांख्य और वैशेषिकोंके मतों संसारका सब कारणोंके आदिमें होनेवाला मूलकारण विपर्यय-ज्ञान माना गया है, उन वादियोंके यहां तत्वज्ञानके प्रकट हो जानेपर उस जीवकी संसारमें स्थिति होना न बन सकेगा। क्योंकि तत्वज्ञानसे विपर्यय ज्ञानका नाश होकर उत्तर क्षण ही मोक्ष हो जावेगी । अतः तत्वोंका उपदेश देनेके लिये योगीका संसारमे ठहरना न हो सकेगा। ___अतस्मिस्तग्रहो विपर्ययः, स दोषस्य रागादेहेतुः, सद्भावे भावात्तदभावेऽभावात् । सोऽप्यदृष्टस्याशुद्धकर्मसंहितस्य, तदपि जन्मनस्तदुःस्वस्थानेकविधस्येति मौलो भवस्य हेतुर्विपर्यय एव येषामभिमतस्तेषां तावदुद्भूततत्वज्ञानस्य योगिनः कथमिह भवे स्थितिघंटते कारणाभावे कार्योत्पत्तिविरोधात् । जो तद्रूप नहीं है, उसमें सद्रूपपनेका ज्ञान करलेना विपर्ययज्ञान है । जैसे कि लेजुमें सांपका ज्ञान या चांदीमें सीपका ज्ञान । वैसे ही शरीर, धन पुत्र, कलत्र आदिमें मैं और मेरा इस ज्ञानको विपर्यय कहते हैं । वह विपर्यय ज्ञान राग, द्वेष, अज्ञान, आदि दोषोंका कारण है ! क्योंकि उस विपर्ययके होनेपर सग आदिक दोष होते हैं और उसके न होनेपर नहीं होते हैं । यह अन्वयव्यतिरेक घट जाता है । और वे राग आविक दोष भी अशुद्धकर्म हैं नाम जिनके, ऐसे पुण्यपापरूप अदृष्ट के कारण है । और वह पुण्यपापकर्म भी जन्म केनेका कारण है । और बह
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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