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सम्मानिन्तामणिः
आदि पयर्यायों में उपादान होकर मृत्तिका ओतप्रोस प्रविष्ट हो रही है। वैसे ही आला रूप एक संतानमें रहने वाले सुख, दुःख, घरज्ञान, पटज्ञान आदि पर्यायों में मी वास्तविक रूपसे आत्माका ओतप्रोत होकर अन्वितपना सिद्ध है । इस कारण मा सक आमद्रव्य सिद्ध हो चुका । एकसौ साठवीं वार्तिकम दिये गये चित्रज्ञानस्वरूप उदाहरणमे अनेक अंशों में अन्वितरूपसे व्यापक रहनापन रूप साध्य रह गया, अतः उस उदाहरणको साध्यसे रहितपना सिद्ध नहीं होता है । बौद्धोंके धरका उदाहरण मिल जानेसे प्रकृत साध्य की सिद्धि भले प्रकार हो जाती है । अब नैयायिकों के साथ शास्त्रार्थ छिडता है।
सिद्धोऽप्यात्मोपयोगात्मा यदि न स्यात्तदा कुतः ।
श्रेयोमार्गप्रजिज्ञासा खस्येवाचेतनत्वतः ॥ १९३ ॥
नित्य और अनेक पर्यायोंमें व्यापक हो रहा उपयोगस्वरूप आत्मा सिद्ध मी हो गया किंतु यदि नैयायिक लोग बात्माको ज्ञान और दर्शन स्वरूप न मानेंगे तब उस आमाके कल्याणमार्गको जाननेकी अभिलाषा कैसे होगी? क्योंकि नैयायिकोंके मत्तम आत्मा आकाशके समान भवेतन माना है। भावार्थ-जैसे चेपनास्वरूप न होने के कारण आकाशके मोक्षमार्गको बाननेकी इच्छा नहीं होती है । उसी प्रकार स्वयं भवेतन जीवात्माके भी मोक्षमार्ग जाननेकी इच्छा नहीं हो सकेगी, .जो ज्ञान और इच्छासे तदात्म नहीं है वह मोक्षमार्गको नहीं जानना चाहेगा।
मेषामात्मानुपयोगखभावस्तेषां नासौ श्रेयोमार्गजिज्ञासा वाचेतनवादाकाशवत् ।
जिन नैयायिक और वैशेषिकोंके यहां आत्मा उपयोग स्वरूप नहीं माना गया है उनके वह मोक्षमार्गको जाननेकी अभिलाषा भी नहीं हो सकेगी क्योंकि मामा तो आकाशके समान स्वयं भरतन है।
नोपयोगस्वभावत्वं चेतनत्वं किन्तु चैतन्ययोगतः, स चास्मनोऽस्तीत्यसिद्धमचेतनवं न साच्यसाधनायालमिति शंकामपनुदति
नैयायिक कहते हैं कि जैनों के समान हम उपयोगके साथ सादास्पसंबंध रखनेवारको चेतन नहीं मानते हैं किंतु बुद्धिरूप चैतन्यके समवायसंबंघसे आस्माका चेतन हो जाना मानते हैं । यह शानका समवाय आत्माके विद्यमान है। इस कारण भापका दिया गया अचेसनत्व हेतु आत्मारूप पक्ष न रहनेके कारण असिद्ध हेत्वाभास है । वह साध्य मामे गये, मोक्षमार्ग जाननेकी भमिलाषाके भभावको मापने के लिए समर्थ नहीं है । इस प्रकार नैयायिकोंकी शंका अर्थात् जैनोंका समाधान करने के लिए रखी हुयी इलयकी शल्पका अब आचार्यमहाराज निराकरण करते हैं।