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________________ तत्वार्भचिन्तामणिः इस कारणसे यह बात स्थिररूपसे सिद्ध हो चुकी कि माल्य, कुमार और युवा अवस्थाम व्यापक रहनेवाला वही एक में हूं । तथा स्थास, कोष, कुशूल और घट अवस्थाओमें वही एक मृत्तिका है । इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान अपनेको रोकनेवाले ज्ञाना रणकर्मसंबंधी विलक्षण रियोग स्वरूप क्षयोपशमके अधीन रहनेवाले पुरुषोंके अपने और एकत्वरूप अर्थको विषय करनेवाले होकर प्रवर्त रहे हैं। यह बात निर्णात हो चुकी है, आप बौद्ध जन तो एक आत्मद्रव्यको स्वीकार नहीं करते हैं प्रत्युत 'नैरात्म्यभावनाके अभ्यास करते समय आत्माक अहं भाव और ममभावका आप त्याग कराते हैं। इस पकारके आत्मतत्वको नहीं माननेकी टेववाले बौद्धोंके मतमें मिन्न भिन्न संतानोंका नियम और भिन्न भिन्न वासनाओंका नियम तो भला कहां मिलेगा ! जिस नियपसे कि आत्मद्रव्यका निर्णय न हो सके । अर्थात् नियमव्यवस्था देखी जाती है विशेष संतान ही विशिष्ट वासनाका उद्दोघ माननेपर वहीं प्रत्यभिज्ञान होता है । अतः एक अखण्ड प्रात्मा प्रत्य सिद्ध हुआ । नराम्यवादी बौद्धों करके कोई संतानका नियम नहीं किया जा सका। तसाच द्रन्यनैरात्म्यवादिना सन्तानविशेषाद्वासनाविशेषाद्वा प्रत्यभिज्ञानप्रतिस्त नियमस्य लब्धुमशक्तेः। इस कारणसे अखण्ड अम्बित आत्मा द्रव्यको शून्यताको माननेवाले बौद्धोंके यहां संतानविशेषसे या वासनाविशेषसे पूर्वीपरपर्यायों में रहनेवाले एकत्वको विषय करनेवाले प्रत्यमिज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि यह देवदत्तकी ही संतान है या यह देवदत्तमे ही ज्ञान कराने थाली वासना है । वह बासना भी पूर्वकी नियत वासनाओंसे या नियत ज्ञानोंसे प्रबुद्ध होती है। इत्यादिरूप से वह नियम करना एक आत्मद्रव्यको माने विना कैसे भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है। किं तर्हि १ पुरुषादेवोपादानकारणात् स एवाह तदेवेदमिति वा स्वार्थकत्वपरिच्छेदक प्रत्यभिज्ञान प्रवर्तते स्वावरणक्षयोपशमवशादिति व्यवतिष्ठते, तस्माच्च मृत्पर्यायाणामिवैकसन्तानवर्तिनां चित्पर्यायाणामपि तत्त्वतोऽन्वितस्वसिद्धेः सिद्धमात्मद्रव्यमुदाहरणस्य साध्यविकलतानुपपत्तेः। तब तो प्रत्यभिज्ञानकी प्रवृत्ति कैसे होवेगी ? सो तुम बौद्ध सुनो ! पूर्व उत्तर पर्यायोंके उपादान कारण होरहे एक आत्मा द्रव्य से ही जो ही में पाल्य अवस्था में था, वहीं में कुमार अवस्थामें हूं, अथवा जो ही स्थास अस्था मृत्तिका है वही कुशूलपायों। मिट्टी है इत्यादि प्रकार आत्मा और बहिरङ्ग अथों एकत्यको जाननेवाले प्रत्यभिज्ञान पवर्त रहे हैं । उक्त सम्पूर्ण अवस्थायें ज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशमकी अधीनतासे आत्मा व्यवस्थित बन रही है और इस " कारणसे अब तक सिद्ध हुआ कि जैसे मृत्तिका की शिवक, छत्र, स्थास, कोष, कुशूल और पर
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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