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तत्त्वार्थीचन्तामणि :
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पूर्व कालवती और उत्तरकालवर्ती पर्यायस्वरूपज्ञानका एक संतान में रहना होनेसे उस प्रकार कार्यकारणभाव नियमको फलना करोगे तो स्पष्टरीतिसे बौद्धों के ऊपर अन्योन्याश्रय दोष लागू होगा, क्योंकि कार्यकारणपनेका जब नियम हो जायेगा तब उससे पूर्वकथनानुसार एक संखानपनेका निर्णय हो सकेगा, और जब एक संतानपनेका निर्णय हो जाये तब उससे आपके इस समय के कथनानुसार यह कार्यकारणभावका निर्णय हो सकेगा। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग आपके पास नहीं है, जिसकी कि आप बौद्ध शरण ले सकें। कार्यकारणभाव लिये द्रव्यत्यासत्तिकी ही शरण लेना अनिवार्य होगा अन्य उपाय नहीं है ||
संतानेक्यादुपादानोपादेयताया नियमे परस्पराश्रयणात्यैव माभूदित्यपि न धीरष्टितम्, पूर्वापरविदोस्तत्परिच्छेद्ययोवी नियमेनोपादेयतायाः 'समीक्षणात् तदन्ययानुपपण्यावायेकद्रव्य स्थितेरिति तद्विषयं प्रत्यभिज्ञानं तत्परिच्छेदकमित्युपसंहरति ॥
बौद्ध कहते हैं कि संतानकी एकतासे उपादान उपादेय वनेका नियम माना जावेगा तब तो अन्यन्योश्रय दोष लगता है इस कारण हम शुद्ध ज्ञानाद्वैतवादी उस उपादान उपादेयभावको ही नहीं मानेंगे | इसवर आचार्य कहते हैं कि दोषोंसे भयभीत होकर अपने मनाव्यको छोड देना मी धीर वीर पुरूषका कार्य नहीं है यह तो अज्ञानी बालकोंकी चेष्टा है। जब कि पहिले और उसके अव्यवहित पीछे ज्ञानों में तथा उन ज्ञानोंके द्वारा जानने योग्य स्थास, कोष, या वरा, खडुआ आदि नियमसे उपादान उपादेय भाव अच्छी तरहसे देखा जा रहा है । इस कारण वह कार्यकारणभाव एक द्रव्यमें तादात्म्यसम्बन्धसे रहनेपन के बिना असिद्ध है । इस अविनाभाव के बलसे सिद्ध होता है कि उन पूर्वउत्तर कालवर्ती 'अनेक ज्ञानों में व्यापकरूपसे रहनेवाला गंगानदीके समान एक अन्वितद्रव्य है और उन ज्ञानों के द्वारा जानने योग्य मृतिका, सुर्ण आदिके पूर्व उत्तर काल होनेवाले स्थास, कोष, खडुआ, बाजू, चरा, उस्सी, सतलडो आदि पर्यायों में भी अतिरूपसे व्यापक एक द्रव्य व्यवस्थित है इस प्रकार उस एक द्रव्यको विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान उस वरूपसे व्यापक हो रहे अखण्ड द्रव्यको जान लेता है । इस ढंग से उक्तप्रकरणका आचार्य महाराज संकोच करते हैं ।
तस्मात्स्त्रावृतिविश्लेषविशेषवशर्तिनः ।
पुंसः प्रवर्तते स्वार्थैकत्वज्ञानमिति स्थितम् ॥ १९९ ॥ सन्तानवासनाभेद नियमस्तु क लभ्यते । नैरात्म्यवादिभिर्न स्याद्येनात्मद्रव्यनिर्णयः ॥ १९२ ॥