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पवाचितामणिः
नामाषपातिकमंत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेनिःश्रेयसानुत्पत्तो, आयुषस्तु यथाकालमनुभवादेव निर्बरान पुनरूपक्रमारस्वानपवर्त्यत्वात् । तदपेशं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिना प्रथमसमये मुक्तिं न सम्पादयत्येव, तदा वत्सहकारिणोऽसत्त्वाव।।
रोरा गुमास्थान के निमा मनाइने रहनेपर भायुःकर्म के बराबर तीन अघातिया कर्मोंकी स्थिति करने के लिये फेवली भगवान के स्वभावसे ही केवलिसमुद्धास होता है और किन्ही *केवली महाराजके नहीं भी होता है। पद्मासन या खलासनसे पूर्वको मुख कर या उत्तर को मुखकर विराजे हुए फेवरूझानी जिनेन्द्रदेवके शरीरके परावर लम्बे चौडे और सात गजू ऊंचे आस्माके प्रदेशोका फैल जाना दण्ड है और कोक पर्यन्त लम्बे शरीरमात्र चौडे और सात राजू, ऊंचे कपारफे समान फैल जाना कपार समुद्धात है। बाववशयोंको छोरकर लोक आलप्रदेशोका फैल जाना प्रतर है और सम्पूर्ण कोकमै आत्माका ठसाठस भर जाना लोकभूरण है। लोकपूरणकी विधि भास्माके मध्यके गोसनाकार आठ प्रदेश सुदर्शन मेहकी जड़के बीचपर आ जाते हैं। परफीके समान चारों ओर चौकोन अनंत मकोकाकाशके ठीक बीचमे लोक है। उस लोकका बहुत ठीक मध्य भाग सुदर्शन मेहकी बडेम विधमान पाठ प्रवेश है। इस लोकाकाशके पूर्व से पश्चिमतक और उत्तरसे दक्षिणतक तथा ऊयदिशासे अघोदिशा तकके प्रदेश सर्वत्र सम संख्याम हैं । दो, पार, छह, पाठ, बस भादिको सम संख्या कहते हैं और एक, तीन, पांच, सात, बादिको विषम पाराकी संस्था कहते हैं। पूर्वसे पश्चिम तक विषम रील्यावा तीन, निन्यानवे, और चाहे एक करोड एक आदि मी संख्या हो, उनका ठीक मध्य एक निकलेगा। किंतु समसंख्यावाले चार, सौ, एक कोटि आदिका मध्यभाग दो निकलेगा एवं पूर्व पब्बिम और उत्तर दक्षिण दोनों ओरसे बहां समसंख्यावाले पदार्थ हैं उनका ठीक बीच पार निकलेगा । सम संख्याका वर्गका मध्य चार होता है। किंतु जहां पूर्व, पश्चिम, उचर, दक्षिण तथा ऊपर नीचे तीनों ओरसे समसंख्यावाले पदार्थ हैं, वहां ठीक बीच माठ होगा। पाठ पाठ रुपयोंकी पर नीचे रख गडी बांधकर पूर्वसे पश्चिम तक आठ पंक्ति रख दी जावें इसी तरह उत्तरसे दक्षिण तक आठ पंति बनामी जाये इस प्रकार इन पांच सौ बारह रुपयों में ठीक पीचके रुपये पाठ होते हैं। इससे छोटी. संख्यावाला बीच नहीं निकल सकता है। क्योंकि समधाराके धनका बीच आठ होता है। आमाके प्रदेशोंका फैलनेके समान पुनः संकोचन होता है। आठवें समयमें सयोग केवलीके आत्मप्रदेश पूर्वशरीरके आकारको धारण कर लेते हैं । इस केवळीकी समुद्धात-परिणामरूप क्रियाले आस्माके मोक्ष कारण विशेषोंका अनुमान कर लिया जाता है तथा फोकी अधिक स्थितियोंका न्यून करनारूप भरकर्षण और कर्म प्रकृ. तियोंको अन्य शुभप्रतिरूप कर देना स्वरूप संक्रमणके कारण परिणामविशेष भी आत्माके विषमान हैं । वे आत्माकी विशेषशक्तियां मोक्षकी उत्पत्तिमें स्लत्रयके अंतरंग सहकारी कारण हो जाती है। यदि आमाकी उन सामयोको सहकारी कारण न माना जावेगा तो नाम, गोत्र और