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________________ तस्त्वार्थविभ्वामणिः 1 हो चुका है, नष्ट होचुका है । तथा उत्पत्तिस्वभाव ही उत्पन्न होगा, विनशेगा, ठहरेगा और उत्पन्न होचुका, नष्ट होचुका, स्थित रहनुका है । इन स्थिति आदिक रूप वस्तु अनादिसे अनन्त कालतक विराम लिये विना परिणमन कररहा है। ऐसे ही आत्मा स्थित है, स्थित रह चुका है, स्थित रहेगा, विनश रहा है, नष्ट होचुका, नशेगा और उत्पन्न होरहा है । उत्पन्न हो चुका, उत्पन्न होवेगा । इस प्रकार तीनों काळकी अपेक्षासे इन नौ मनोंके प्रत्येकके नौ भेदोंकी अपेक्षासे इक्यासी मेदवाकी वस्तु होजाती है । ऐसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके तीनों काल और परस्पर के सांकर्यसे त्रिलक्षताके अनेक मेद प्रभेद होजाते हैं। वस्तुकी सचा अनन्तपर्यायों से युक्त । इसका विशेष विवरण श्री अष्टइसी मैथ में देख लेना । एक पुरुष वर्तमान में सत्यवती है । पहिले नहीं था और आगे भी सत्य बोलनेवाला नहीं रहेगा तथा दूसरा पुरुष पहिले सत्यवती था, अब मी है और आगे नहीं रहेगा तथा तीसरा पुरुष पहिले सत्यवती नहीं था, किंतु अब है और आगे भी रहेगा। चौथा पुरुष तीनों कालमें सत्यत्रती है। इन चारों पुरुषों में वर्तमान में सत्य बोलना बराबर है, किंतु मूत भविष्यत् के रहित, सहित, परिणामोंसे वर्तमान के सत्यत्रतमे आनुषंगिक दोष और गुण आजाते हैं । अतः वर्तमान मत पालने में भी सूक्ष्मता से चारों पुरुषोंमें मेद है । कारण कि आत्मा अन्वितद्रव्य है । पहिले पीके के अनुसार संस्कारोंको तथा स्वकीय गुणोंके अधिकारोंको लेता, देता, छोडता, रहता है। तदनुसार उसमें अनेक खोटे खरे अतिशय उत्पन्न होजाते हैं । इसी प्रकार एक मनुष्य वर्तमान में सत्यवती है और ब्रह्मचारी भी है। किंतु वह पहिले पाचारी नहीं था और जागे भी नहीं रहेगा, दूसरा सत्यवती पहिले ब्रह्मचारी था और अब भी है, किंतु आगे न रहेगा । तीसरा सत्य बोलनेवाला वर्तमान ब्रह्मचारी है, आगे भी रहेगा किंतु पहिले ब्रह्मचारी नहीं था। चौथा सबती तीनों कालों में महाचारी है। यहां दूसरे ब्रह्मचर्य के रहित सहितपनेसे या कालकी त्रिगुणटासे सत्यत्रतके सुक्ष्म अंशोंमें भेद माना जाता है । ऐसे ही अचौर्य गुणके साथ भी लगा लेना ! यदि इन गुणोंकी मनः वचन, काय और कृष, कारित, अनुमोदना तथा कालकी अपेक्षासे प्रस्तार - विधि की जावेगी तो करोडों भेद प्रभेद होजायेंगे। ये भेद कोरे कल्पित नहीं हैं। किंतु वस्तुके स्वाभाविक परिणामोंकी भित्ति पर अवलम्बित है । सीता, अंजना, गुणमाला, द्रोपदी, विशल्या आदि स्त्रियों के समान ब्रह्मचारिणी स्त्रियां अनेक हुयी हैं । किंतु अन्य अनेक गुणों के साथ त्रियोगसे त्रिकालमें अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन विशेषरूपसे इनका प्रशंसनीय है। पुरुषों में अनेक ब्रह्मचारी पुरुष हुए हैं। किन्तु वारिषेण या चरमशरीरी कामदेव सुदर्शन सेठ आदिके समान नहीं । विरोधी कारण सामग्रीके मिलनेपर अखण्ड ब्रह्मचर्य रक्षित रखना इनका प्रशंसनीय कार्य कहा है। तीर्थकर महाराजके ब्रह्मचर्य की वो अचिन्त्य महिमा है । रूप, घन विद्या, प्रभुता, और सन्तानके अन्योन्य अनुगुणसहित, रहितपनेसे तथा संकर व्यतिकरपनेसे लौकिक पुरुषोंके परिणाम न्यारे चोरी, व्यभिचार, हिंसकपन आदि दोषों में भी लगा लेना । ये सब भावोंके अनेक प्रकारसे त्रिकक्षणात्मक होनेसे ही उत्पन्न होजाते हैं । I न्यारे हो जाते हैं । एवं स्वभाव आत्मा के अनेक ५७५
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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