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________________ K ५७४ BERKL तत्वार्थचिन्तामणिः नाप्यात्मान्तःकरणसंयोगोऽसमवायिकारणं, प्रागदृष्टं वा तद्गुणो निमित्तकारणं, तस्य aat भिन्नस्य सर्वदा तेनासम्बन्धात् । कदाचित्तत्सम्बन्धे वा नित्यैकान्यहानिप्रसंगात्, स्वगुणासम्बन्धरूपेण नाशाद्गुण सम्बन्धरूपे गोत्पादाच्चेतनत्वादिना स्थितेस्वत्त्रयात्मकत्वसिद्धेः । तथा वैशेषिक समवायिकारणमै रहनेवाले कारणको असमवायि कारण कहते हैं । आत्मामै रहनेवाला आत्मा और मनका संयोग है वह अदृष्टोकी उत्पत्तिरूप बंत्रकी या मिथ्याज्ञान और तत्त्वज्ञानों की उत्पत्तिमें असमवायिकारण माना गया है, सो भी नहीं हो सकता है। क्योंकि जब आत्मा समवायीकारण ही सिद्ध नहीं हुआ तो समवायी कारणमै रहनेवाले गुण कमोंको असमवायी कारणपना माना गया कैसे भी सिद्ध नहीं हो सकता है । और बंधरूप संसारकी उत्पत्तिमे वैशेपिकोने आत्मा के विशेषगुण पहिलेके पुण्य पापको बंधका निमित्तकारण माना है । सो मी नहीं बन पाता है। क्योंकि आमासे सर्वथा भिन्न उस पुण्यपापका उस आत्माके साथ सभी कालों में संबंध नहीं है। यदि किसी कालमै आत्मा के गुणोंका उस आत्मासे संबंध मानोगे तो आत्माके एकांत रूप से निस्यपनेकी हानि हो जावेगी । कारण कि जबतक आत्मामें विवक्षितगुण उत्पन्न नहीं हैं, उस समय आत्मामें गुणोंसे असम्बन्ध करना स्वभाव है । जब विवक्षित गुण उत्पन्न हो जाते हैं । तब उस समय गुणोंसे असम्बन्ध होना रूप अपने पहिले स्वभाव करके आत्माका नाश हुआ और नवीन गुणका सम्बन्धरूप स्वभाव करके आत्माका उत्पाद हुआ। तथा चेतनपना, आश्मपना, सपना, यदि धर्मोसे आत्मा स्थित रहा। इस कारण उस आत्माको तीन लक्षणस्वरूप परिणामीपना सिद्ध होता है । प्रत्येक द्रव्यमै उत्पाद, व्यय, धौव्य ये तीनों लक्षण विद्यमान हैं। इन तीनोंका विस्तार यों है कि स्वकीय द्रव्यत्व गुण द्वारा स्वभावसे परिणमन करते हुए द्रव्य कारणान्तरोंकी नहीं अपेक्षा करके उत्पाद आदि तीन सामान्यरूपसे सर्वदा होते रहते हैं। हां, विशेषरूपसे किसी धर्मकी उत्पत्ति आदि अन्य हेतुओंका व्यापार भी इष्ट किया है। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा से उत्पत्ति होनेका इच्छुक ही आत्मा नष्ट होता है । क्योंकि पहिली दुःखरूप पर्यायका नाश होकर अपने अनेक स्वभावों में स्थिर रहनेवाला आत्मा ही उत्तरकालमें अपनेसे अभिन्न होरहीं सुख आदि पर्यायोंको पैदा करता है तथा नाशशील आत्मा ही स्थित रहता है, जो किसी प्रकार भी नाशको प्राप्त नहीं होता है। वह घोडेके सींग समान स्थिर भी नहीं है । एवं स्थितशील पदार्थ ही उत्पन्न होता है। उस कारण प्रत्येक वस्तुमें एक ही कालमें तीनों लक्षण पाये जाते हैं, तथा स्थितिरूप भाव उत्पन और विष्ट होता है तथा विनाश ही स्वभाव स्थित रहता है और उसन्न होता है एवं उत्पाद स्वभाव ही नष्ट और स्थिर होता है। इस प्रकार स्थिति आदि स्वभावों में भी त्रिलक्षणता है। द्रव्य और पर्याय स्वरूपवस्तु अभेद होनेसे विलक्षणता माननेपर कोई अनवस्था दोष नहीं है । तथा स्थितिस्वभाव ही भविष्य में स्थित रहेगा, उत्पन्न होगा, विनशेगा और स्थितस्त्रभाव ही स्थिर रहचुका है, उत्पन्न होचुका है, नष्ट होचुका है, एवं विनाश स्वभाव ही ठहरेगा, उत्पन्न होगा, नशेगा और स्थित रहचुका है, उत्पन्न
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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