SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः अर्थक विशेष विशेषांशोको जाननेवाला संशयज्ञान प्रन्थ सुनने में प्रवृत्ति कराता है, ऐसा माननेपर प्रमाणतत्त्वकी व्यवस्थापना करना भी सफल है । पण्डितोंके साथ वाद, संवाद करनेसे विशिष्ट तत्त्वोंका ज्ञान होता है यह सिद्धांत भी विशेषांशमें संशय करनेवाले के ही लिये लागू है, केवलज्ञानीके लिये नहीं । अब आचार्य बोलते हैं कि इस प्रकार तुम्हारे कहने पर प्राभाविक प्रयोजनवारय शो अले ही प्रवृत्तिका कारण हो जाय किंतु अप्रमाणरूप प्रयोजनवाक्यसे उत्पन्न हुआ अर्थका संशय तो श्रोताओंको प्रन्थ सुनने प्रवृत्तिका कारण कैसे भी नहीं हो सकता है । एक मात यह भी है कि रस्सीम सर्पका ज्ञान करनारूप विपर्ययज्ञानका फल जैसे प्रमाणरूप नहीं है उसी प्रकार संशयके फलको भी प्रमाणस्वरूप मानना विरुद्ध है । अपना और अपने विषयका निश्चयरूप फलको करनेवाले ज्ञानको ही प्रमाणता प्रसिद्ध हो रही है, तथा च अर्थमें संशय उपजानेवाला आपका प्रयोजन याश्य कैसे मी श्रोताओंकी प्रवृत्तिका कारण नहीं हो सकता है । फलसंभावना-रूप संशयसे बालजन भले ही प्रवृत्ति कर ले। किंतु विचारशील विद्वान् निश्चयात्मक प्रमाणसे ही प्रवृत्ति करते हैं। ये स्वाहुनिष्प्रयोजनं तमारंभषीयं यथा काकदन्तपरीक्षाशास्त्र, निष्प्रयोजनं चेदं शाखमिति ब्यापकानुपलब्ध्या प्रत्यवतिष्ठमानान्प्रति व्यापकानुपलब्धेरसिद्धृतोद्भावनार्थ प्रयोजनवाक्पमिति । यहां जो कोई ऐसा कहते हैं कि व्याप्यसे व्यापकका ज्ञान होता है और ब्यापकके अभावसे तो व्याप्सका अभाव प्रतीत हो जाता है, यहाँ कार्यका आरम्म करना ( धूमके समान ) न्याप्य है और प्रयोजनवान्पना (अग्निके समान) व्यापक है, तथा प्रयोजनरहितपना (वहिके अभावसमान) ब्याप्य है और कार्यके आरम्भका न होना (धूमामावके सभान ) व्यापक है, ऐसा व्याप्यव्यापकभाव सिद्ध हो जाने पर कोई असत्य उत्तररूप जातिनामका दोष उठाते हैं कि जो जो प्रयोजनरहित है, वह वह शास्त्र सद्वक्ताओंको आरम्भ करने योग्य भी नहीं है, जैसे कि काकके दातोंकी परीक्षा करने वाले शास्त्रको कोई नहीं बनाता है, इसके समान प्रयोजनसहितपना-रूप व्यापकके ज्ञान न होनेसे अंथके आरम्भ-रूप अपशस्तन्यापकका भी अभाव होना चाहिये, इस प्रकार जातिदोष उठानेवालोंके प्रति प्रयोजनके नहीं होने की असिद्धिको प्रगट करनेके लिये प्रयोजनवाक्य कह दिया गया है । भावार्थ--सद्वक्ताओंके आरंभ करने योग्य यह ग्रंथ प्रयोजनसहित है। आचार्य कहते हैं कि समाधान करनेवाले ये लोग भी चारों ओरसे अच्छी तरह देखनेवाले परीक्षक नहीं हैं। सेऽपि न परीक्षकाः स्वयभप्रमाणकेन तदसिद्धृतोद्भावनाऽसंभवात् तत्प्रमाणत्वस्य । पैरन्यवस्थापयितुमशक्तः।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy