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________________ - तत्त्वार्थचिन्तामणिः कारण कि जब तक आदिके प्रयोजन वाक्यको प्रमाणपना सिद्ध नहीं तो फिर स्वयं अप्रमाणरूप प्रयोजनवाक्यसे जातिवादीके उठाये हुए दोषकी असिद्धि कैसे हो सकती है ? केवल प्रयोजनका उच्चारण कर देनसे आप लोग उसकी प्रमाणताका निर्णय कैसे भी नहीं कर सकते हैं, प्रमाणोंसे सिद्ध किये हुए वास्य ही दूसरों के दोष हटानेमें समर्थ होते हैं, और अभीतक प्रयोजनबायकी प्रमाणसा दूसरों के द्वारा ही व्यवपित की जा सकी है। सकलशास्त्रार्थोद्देशकरणार्थमादिवाक्यमित्यपि फल्गुणायं तदुदेशस्याप्रमाणात्प्रतिपशुमशक्तस्तल्लक्षणपरीक्षावत् ।। " आगेके सम्पूर्ण शास्त्रके प्रतिपाद्य-विषयका संक्षेपसे नाममात्र कथन करनेके लिये पहिला वाक्य लिखा जाता है, " यह भी आदिवाक्यका फल बताना बहुभागमें व्यर्थ है, क्योकि अप्रामाणिकवाक्यसे संक्षिप्त अर्थके कथनका भी निर्णय नहीं हो सकता है, जैसे कि प्रमाणरहित-वाक्यसे किसी यस्तुका लक्षण और परीक्षा नहीं की जाती है उसी प्रकार मन चाहा बोला हुआ वाक्य उद्देश करनेवाला भी नहीं होता है। बात यह है कि उद्देश्य, लक्षणनिर्देश, और परीक्षा तो मामाणिक वाक्यसे ही किये जाते हैं । यही सर्व दार्शनिकोंको इष्ट है।। ततो नोद्देशो लक्षपा परीक्षा चेति त्रिविधा व्याख्या व्यवतिष्ठते । उस फारणसे उद्देश, लक्षण और परीक्षाको प्रमाणताके निर्णय किये विना ग्रंथका नाम मात्र कथन करना, मिली हुयी वस्तुओं मेंसे पृथक् करनेका कारणरूप लक्षण बोलना और अनेक युक्तियोंकी सम्भावना प्रबलता और दुर्बलताके विचाररूप परीक्षा इन तीनों प्रकारसे व्याख्यान करना व्यवस्थित नहीं हो सकता है। समासतोऽर्थप्रतिपत्त्यर्थमादिवाक्यं व्यासतस्तदुत्तरशास्त्रमित्यप्यनेनैव प्रतिक्षिप्तमप्रमाणाद्वयासत इव समासवोऽप्यर्थप्रतिपत्तेरयोगात् ।। कोई वादी आदिके वाक्यका प्रयोजन यह बतलाते हैं कि ग्रंथका संक्षेपसे ज्ञान करने के लिये आदिका वाक्य है और विस्तार रूपसे अर्थ की प्रतिपत्ति करानेके लिये भविष्यका पूरा ग्रंभ है, ग्रंथकार कह रहे हैं कि यह इनका विचार भी पूर्वोक्तकथनसे खण्डित हो जाता है, क्योंकि जब तक पूरे प्रथम प्रमाणता सिद्ध नहीं है, तब तक विस्ताररूपसे अर्थका ज्ञान जैसे नहीं हो सकता है उसी प्रकार ग्रंथके अप्रामाणिक पहिले वाक्यद्वारा संक्षेपसे भी पदार्थका निर्णय नहीं हो सकता है, अतः आप लोगोंको प्रयोजन कहनेवाले बाक्यकी प्रमाणताका निर्वाय करना आवश्यक है। स्याद्वादिनान्तु सर्वमनवचं तस्यागमानुमानरूपत्वसमर्थनादित्यलं प्रसंगेन । स्याद्वादरूपं सिद्धांतको माननेवाले जैनोंके मत में तो सर्व पूर्वोक्त कथन निर्दोष सिद्ध है, क्योंकि आनिके प्रयोजन वाक्यको आगमप्रमाणस्वरूपपने और अनुमानप्रमाणरूपपनेका अच्छी तरह
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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