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________________ सत्त्वाविन्सामाणः प्रथम पक्षके अनुसार बुद्धको द्रव्यरूपसे अनादिसे अनन्त कालप्तक अन्वयसहित-रूप माननेपर तो जैनमत ही सिद्ध हो जाता है क्योंकि उस पुण्यविशेषसे अलंकृत और द्रव्यरूपसे अनादि अनन्त कालतक व्यापक तथा विवक्षाके विना ही मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाला बुद्धदेव हमारा जिनेन्द्रदेव ही तो है । यदि द्वितीयपक्षके अनुसार उस बुद्धको आप प्रत्येकक्षणमें विनाशशील मानोगे यानी अन्वयरहित होकर सर्वप्रकारसे नष्ट हो जाता है तब तो ऐसी दशाम वह क्षणिक बुद्ध कथमपि कुछ भी अर्थक्रिया न कर सकेगा। कालान्तरस्थायी तो आत्मा उपदेश दे सकता है। जो एक क्षण ही हरता है वह अपने आत्मलाभ करनेके समयमें कोई भी अर्थक्रिया नहीं कर सकता है । जब दूसरे क्षणमें कुछ कार्य करनेके योग्य होता है तब उसका आपके मतसे सत्यानाश हो जाता है। असत् पदार्थ क्या कार्य करेगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं । न सान्वयः सुगतो येन तार्यकरत्वमावनोपाचातीर्थकरत्वनामकर्मणोऽतिशयवतः पुण्यादागमलक्षणं सीथे प्रवर्तयतोऽहतो विवक्षारहितस्य नामान्तरकरणात् स्वादादिमत सिद्धयेत्, नापि प्रतिक्षणविनाशी सुगतः क्षणे शास्सा येनास्य क्रमयोगपयाभ्यामक्रियाक्षतिरापाधते, किं तर्हि ? सुगतसन्तानः शास्तति यो ब्याव बौद्ध कहते हैं कि न तो हम सुगतको द्रव्यरूपसे अन्वयसहित मानते हैं जिससे कि यानी यदि हम ऐसा मानते होते तो जबर स्याद्वादियोंका यह मन्तव्य सिद्ध होजाता कि धर्मतीर्थ का किया जानारूप तीर्थकर प्रकृतिका आस्रव करानेकी कारण सोलह कारण भावनाओं के बलसे. बांधे हुए तीर्थकरव-नामकर्मरूप माहात्म्य रखनेवाले पुण्यसे बोलनकी इच्छाके बिना मोक्षमार्गका प्रतिपादक आगमरूपी तीर्थकी प्रवृत्ति कराते हुए अर्हन्त देवका ही दूसरा नाम बुद्ध कर दिया गया है और इस ही कारण हम क्षण क्षण नष्ट होते हुए सुगतको एक ही क्षणमें मोक्षमार्गका शिक्षक भी नहीं मानते हैं। जिससे कि आप हमारे ऊपर क्षणिकपा क्रमसे और युगपत्से अर्थक्रिया की क्षति होजानेका आपादन करे, तब तो हम क्या मानते हैं इस बातको सुनिये हम सुगतकी उत्तर कालतक होनेवाली ज्ञानसन्तानसे मोक्षमार्गका शासन होना स्वीकार करते हैं । अब अन्धकार कहते हैं कि इस प्रकार जो कोई बौद्ध कहेगा तो तस्यापि स सन्तानः किमवस्तु वस्तु वा स्यात् ? उभयत्रार्थक्रियाश्चतिपरमतसिद्धी तदवस्थे। उस बौद्धके मतमें भी वह ज्ञानको सन्तान क्या अपरमार्थमूत है ? अथवा क्या वस्तुस्वरूप परमार्थ है ! बताओ, पहिला पक्ष माननेपर आस्तुसे अर्थक्रिया न हो सकेगी तथा दूसरा पक्ष होने पर दूसरे मत यानी स्याद्वादियों के सिद्धान्तकी सिद्धि हो जायेगी । यो इन दोनों पक्षों में हमारा पूर्वोक्त कथन वैसाका वैसा ही ठीक रहा यानी दोनों बातें अवस्थित रहीं। १५
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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