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________________ १५४ तथा चिन्तामणिः वे धर्म असत् रूप ही है अर्थात् कुछ नहीं हैं। भला ऐसी दशामें जैनियों का माना गया छह कारकोंका समुदाय परमार्थ रूपसे सद्भुत पदार्थ कैसे हो सकेगा? बताओ। जिससे कि ज्ञानको कापना कर्मपना आदि बन सकें आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो उत्तर सुनिये । भावस्य वासतो नास्ति विवक्षा चेतरापि वा । प्रधानेतरतापायाद्गनाम्भोरुहादिवत् ॥ २७ ॥ असत् रूप पदा की विधवा नहीं होती है और दूसरी अविवक्षा भी नहीं है। क्योंकि प्रभानपना और गौणपना विद्यमान पदार्थामें होता है । असतके नहीं, जैसे कि भाकाशके कमल या पन्ध्यापुत्र आदिमें प्रधानपन या गौणपन अथवा अर्पितपना और अनर्पितपना नहीं बनता है। "गौर्वाहीक" यहा बोझ लादनेवाले मनुष्यमें बैलपनेका उपचार किया जाता है । शशके सींगमें नहीं। प्रघानेतरताम्यो विवक्षेतरयोप्सित्वात् पररूपादिभिरिव स्वरूपादिभिरप्यसतस्तदभावात्तदभावसिद्धिः । विवक्षा और अविवक्षाकी प्रधानपने और अप्रधानपने के साथ व्याप्ति है । परम्य क्षेत्र, काल, भाव करके सर्व पदार्थ असत्रूप हैं अर्थात् नास्तिस्वधर्मसे युक्त हैं । पररूप आदिकों करके असत् के समान यदि वे अपने स्वरूप आदि स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, मावसे मी असत् होगे तो ऐसे अश्वविषाण आदि पदार्थोकी प्रधानता और अप्रघानता न होनेके कारण विवक्षा और अविवक्षाकी सिद्धि भी नहीं होती है । उस व्यापकके न होनेपर वह व्याप्य भी नहीं रहता है। विवक्षा, अविवक्षा न्याप्य हैं। प्रधानता और अप्रधानसा धर्म व्यापक हैं। सर्वथैव सतोनेन तदभावो निवेदितः। एकरूपस्य भावस्य रूपद्वयाविरोधतः ॥ २८ ॥ धर्मोको असत् रूप माननेवाले बौद्ध हैं और सद्रूप मानने वाले ब्रमाद्वैतवादी हैं । यदि धोको सर्वथा ही सप मान लिया जावे तो भी उस प्रघानता और भप्रधानताका अभाव समझ लेना चाहिये । यह बात उक्त कथनसे निवेदन कर दी गयी है । क्योंकि सर्वथा कूटस्थ एकधर्मस्वरूप पदार्थके प्रधानता और अप्रधानता रूप दोनों धर्मोंका रहना विरुद्ध है। एकमे दो चार धर्म रहे तब तो एक प्रधान, अन्य अपधान हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। न हि सदेकाते प्रधानेतररूपे स्तः । कल्पिते स्त एपेति चेन्न, कल्पितेतररूपयस्य सचावविरोधिनः प्रसंगात् । कल्पितस्य रूपस्यासवादकल्पितस्यैव सचान्न रूपद्वयमिति
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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