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________________ तत्त्वार्य किन्तामणिः "-"- . . . घेत्ताईसतो प्रधानेतररूपे विवक्षेतरयोर्विषयतामास्कन्दत इत्यायातम्, तच्च प्रतिक्षिप्तम्। स्याद्वादिना तु नायं दोषः। चित्रैकरूपे वस्तुनि प्रधानेतररूपद्धयस्य स्वरूपेण सतः पररूपेणासतो विवक्षेतरयोर्विषयत्वाविरोधात् । - यदि भद्वैतवादी करके प्रतिभासस्वरूप सम्पूर्ण पदार्थोंका सत्तारूप एकांत माना जावेगा ऐसी दशा भी प्रधान और दूसरे गौणरूप ध वस्तु कभी नहीं रह सकते है। यदि अद्वैतवादी यो कहै कि वस्तुभूत एक ब्रझमें कल्पना किये गये दो धर्म रह ही जाते हैं। सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि दो धर्नाका कल्पितपना और उससे न्यारा परमासका अकल्पितपना ऐसे दोनों स्वभाव तो सत्तारूप अद्वैतवादके विरोधी हैं। अतः आपको द्वैतपनेका प्रसंग आवेगा। यदि आप विधिवादी यों कह कि कल्पितस्वभाव तो असत् पदार्थ हैं। किंतु नहीं कस्पना किया गया परब्रह्म ही सार्य है । इस कारण हमको वस्तुभूत दो स्वभाव नहीं मानने पड़ेंगे जिससे कि हमारे अद्वैतका विरोध हो जावे। ऐसा कहनेपर तो यह अभिप्राय आया कि असमदार्थोके प्रधानता और अप्रधानता धर्म इन विवक्षा और अविवक्षाके विषयपनेको प्राप्त होते है। सद्वस्तुके नहीं । किंतु इसका खण्डन अभी हम कर चुके हैं अर्थात् बौद्धों के सम्मुख हमने सिद्ध कर दिया है कि सत्पदार्थोके ही प्रधानता और अप्रधानता धर्म होते हैं। और स्याद्वादसिद्धांतको माननेवाले हम लोगोंके मत तो यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि अनेक चित्र स्वभाववाले एक वस्तमें प्रधानता और अप्रघानता दो धर्म स्वके स्वरूप करके विद्यमान हैं। और दूसरोंके स्वरूपके करके वे धर्म विद्यमान नहीं है। ऐसे वे धर्म विवक्षा और अविवक्षाके विषय हो जाते है । कोई विरोध नहीं है, एक ही मनुष्य दूसरे संबंधियोंकी अपेक्षासे पिता, पुत्र और भानज्जा, मामा आदि बन जाता है। उपयोक्ताओंकी अपेक्षासे दुग्धपदार्थ पोषक, रेचक, और श्लेखमकर है। विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनन्तधर्मिणि । सतो विशेषणस्यात्र नासतः सर्वथोदिता ॥ २९ ॥ अनंत धर्मवाले एकधर्मीरूप विशेष्य पदार्थ, विद्यमान ही विशेषणों से अभिलाषीको किसी विशेषणकी विवक्षा हो जाती है और उदासीन व्यक्तिको विद्यमान होरहे अन्य विशेष धर्मकी अविवक्षा हो जाती है, सर्वथा असत् समाकी विवक्षा और अविवक्षा नहीं होती हैं। इस प्रकरणी श्री समंतभद्र स्वामीने देवागमस्तोत्रमें ऐसा ही कहा है " विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येनन्सवमिर्माण, सतो विशेषणस्यान नासतस्तैस्तदर्थिमिः " यह आप्तमीमांसाकी पैंतीसवीं कारिका है। न सर्वथापि सतो धर्मस्य नाप्यसतोऽनन्तधर्मिणि वस्तुनि विवक्षा चाविवक्षा च भगवद्भिः समन्तमद्रखामिभिरभिहितासिन् विचारे, किं तर्हि ? कश्चित्सदसदात्मनः एव प्रधानताया गुणतायाश्च सद्भावात् ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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