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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः अनन्त धर्मविशिष्ट वस्तु न तो सभी प्रकारोंसे सत् होरहे धर्मकी और न सर्व प्रकारले असत् की भी विवक्षा या अविवक्षा होती है । इस विवक्षाके प्रकरण में विचार होनेपर भगवान् समंतभद्र स्वामीने यही बात कही है। तब तो कैसे धर्म की विवक्षा होती है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि कथञ्चित् सत्रूप और कथञ्चित् असदरूप तदात्मक धर्म की ही प्रधानता और गौप्णपन होजानेका सद्भाव है । जगत्मे संपूर्ण पदार्थ किसी अपेक्षासे सद्रूप और अन्य अपेक्षासे असतरूप हैं । अतः उनके धर्म भी वैसे ही है। बौद्धों का माना गया धर्मो का शून्यवाद और अद्वैतवादियों का सद्भाववाद प्रमाणपद्धतिसे खण्डित होजाता है। " सर्वे सर्वत्र विद्यते " सभी वस्तुयें सब स्थानों पर विद्यमान हैं। अंगुली के अग्रभागपर सौ हाथियों के झुंड स्थित है, यह सांख्यों का मत भी प्रत्युक्त होजाता है। ४५६ कुतः कस्यचिद्रूपस्य प्रधानेवरता च स्याद्येनासौ वास्तवीति चेद क्या कारण है कि विद्यमान होहे किसी प्रधानता होती है और विद्यमान अन्य रूपकाही उससे मित्र गौणपना होजाता है ! बताओ। जिससे कि यह प्रधान गौण व्यवस्था वास्तविक मानी जावे। यदि ऐसा कहोगे तो — आचार्य उत्तर कहते हैं कि स्वाभिप्रेतार्थसम्प्राप्तिहेतोरत्र प्रधानता । भावस्य विपरीतस्य निश्चीयेताप्रधानता ॥ ३० ॥ नैवातः कल्पनामात्रवशतोऽसौ प्रवर्तिता । वस्तुसामर्थ्य सम्भृततनुत्वादर्थदृष्टिवत् ॥ ३१ ॥ इस वस्तु इच्छुक जीव अपने अभीष्ट पदार्थ की समीचीन प्रासिके कारण माने गये धर्मकी प्रधानता हो जाती है और उसके प्रतिकूल अपने अनिष्ट पदार्थकी प्राप्तिके कारण होरहे स्वभावकी अप्रधानता हो जाती है, ऐसा निर्णय किया जाय। इस कारण प्रधानता और अप्रधानताकी उस प्रवृत्तिको केवल कल्पनाके अधीन ही नहीं मानना चाहिये। किंतु वस्तुके स्वभावभूत सामर्थ्य से प्रधानता और अप्रधानताका शरीर ठीक उत्पन्न हुआ है। जैसे कि अर्थका दर्शन वस्तुकी मिचिपर डटा हुआ है। अर्थात् — बौद्धों के मत वस्तुभूत स्वलक्षण स्वयं कल्पनाओसे रहित है, तभी तो उसको जाननेवाला प्रत्यक्षप्रमाण भी निर्विकल्पक है । निर्विकल्पक माने गये स्वलक्षणसे जग्य अर्थका दर्शन जैसे निर्विकल्पक है, वैसे ही अनेक प्रधान अप्रधानरूप विद्यमान विशेषोंकी मिचिपर ही वक्ता प्रधानधर्मकी विवक्षा और अप्रधान धर्मकी अविवक्षा हो जाती है। दुग्धमें पोषकत्व, रेचकत्व शक्तियां हैं। तभी तो वह भिन्न भिन्न उदरोको प्राप्त होकर अपनी शक्तिके वश पोषण, रेचन कर देता है | जैन सिद्धांत वस्तुके स्वभावको माने विना कोई कार्य नहीं होता हुआ माना है । विद्यार्थीमें अध्ययन करने की शक्ति है, उसको निमित्त मानकर अध्यापक पढा सकता है। अन्यमा 1
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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