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तत्वार्थचिन्तामणिः
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चौकी या तो भी पढा देवे, इस प्रकार पाठककी अध्यापन शक्तिके वश विद्यार्थी पढ लेता है । . अन्यथा वृक्षसे क्यों न पढ लेवे ! हां ! अनेक बाते वृक्ष, थम्म, घूरा, पृथ्वी, बादल आदि पदार्थोंसे मी मनुष्य सीख लेता है, जैसे कि पृथिवीसे क्षमा धारण की, वृक्षसे परोपकारकी, कुचेसे अल्प निद्रा लेने की शिक्षा ले लेता है । यह मी कार्य पृथिवी आदिकमै निमिचशक्ति होनेपर ही माना गया है । यदि तीर्थराज सम्मेदशिखर में भक्त मनुष्यको विशिष्ट पुण्य उत्पन्न कराने की शक्ति है तो साथ में दुष्टपापी यहां वज्रलेप दुष्कर्मो को भी बांध लेता है । तलवार से स्वरक्षा और स्वघात दोनों हो जाते हैं। मेषों में श्रृंगारभाव पैदा कराने की शक्ति है तो किसीको बादल देखकर वैराग्य पैदा करादेनेकी निमितशक्ति भी विद्यमान है । अतः ज्ञान, सुख, इच्छा आदि अनेक परिणाम वस्तुके स्वभावको अवलम्ब लेकर ही उत्पन्न होते हैं। निमित्तके मिना नैमित्तिक भाव नहीं हो सकता है ।
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कर्तृपरिणामो हि पुंसो यदा स्वाभिप्रेतार्थसम्प्राप्तेर्हेतुस्तदा प्रधानमन्यदात्वप्रधानं स्यात् तथा करणादिपरिणामोऽपि ततो न प्रधानेतरता कल्पनामात्रात्व बिठास्या वस्तुसामर्थ्याय चत्वादर्थदर्शनवत् ।
जिस समय आत्माका कार्य करनेमें स्वतंत्रतारूप कर्तृत्व परिणमन ही अपने अभीष्ट होरहे पदार्थकी प्राप्तिका कारण हो रहा है, उस समय आत्मामें कर्तापन धर्म प्रधान है, उसकी विवक्षा है और दूसरे कर्मत्व, करणस्व, धर्म तो अप्रधान हैं, उनकी विवक्षा नहीं है। उसी प्रकार अब आत्मा के क्रिया करनेमें प्रकृष्ट उपकारकरूप करण परिणाम इष्टसिद्धिके कारण हैं। तब करणपना धर्म भी sura sोकर विवक्षित है। ऐसे ही कर्मपन और भावको भी समझ लेना । उस कारण प्रधानता और इससे अन्य अप्रधानता केवळ कोरी कल्पना से नहीं प्रवर्ष रही है। किंतु वस्तुके स्वभावभूत सामथ्यों के अधीन होकर प्रवर्स रही है। जैसे कि बौद्धों के द्वारा माना गया स्वलक्षणका प्रत्यक्षप्रमाण निर्विकल्प पदार्थ अधीन ही उत्पन्न हुआ है, सभी तो वह जाति, नाम, संसर्ग आदिकी कल्पनाओंसे रहित है । चूहों की उत्पत्ति चूहोंके वस्तुभूत मा, बापों से है ।
नन्वभिप्रेतोर्थो न परमार्थः सन्मनोराज्यादिवत्ततस्तत्सम्प्रात्यप्राप्ती न वस्तुरूपे यतस्तद्धेतुकयोः प्रधानेतर भावयोर्वस्तु सामर्थ्यं सम्भूतमनुस्वं सिद्धयत् तयोस्तवतां साधयेत् इति चेत्, स्मादेवम्, यदि सर्वोऽभिप्रेतोर्थोऽपरमार्थे सन् सिद्धयेत् कस्यचिन्मनोराज्यादेरपरमार्थत्वस स्वप्रतिपतेरवाधिताभिप्रायविषयीकृतस्याध्यपरमार्थसत्वसाधने चंद्रद्वय दर्शनविषयस्यावस्तुत्वसम्प्रत्ययादवाधिताखिलदर्शनविषयस्यावस्तुत्वं साध्यतामभिप्रेतत्व दृष्टत्वहेत्वो
रविशेषात् ।
यहां पुनः बौद्धकी शंका है कि अमीलाषी पुरुषको कोई विवक्षित पदार्थ अभीष्ट है यह जैनोंने कहा, किंतु वस्तुतः विचारा जांबे तो वह इष्टपदार्थ परमार्थभूत नहीं है । जैसे कि अपने
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