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माना निन्दामणिः
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आध्याययातिसंघातघातन है। क्योंकि जिस कारण इस ग्रन्थ से विचारवान् पुरुषोंको सर्व बाजुओं से विशिष्ट ज्ञानका समागम होता है और यह जो स्वतन्त्र कर्तारूप से घातिसमुदायको नाश करते हुए मुक्ति के अभिलाषी जीवोंको उसका प्रयोजक निमित्तकारण होनेसे यह ग्रन्थ घातिकमा के नाश करने प्रेरक भी है तो भला इस ग्रन्थ को फिर कैसे निष्फल कहा जा सकता है? भावार्थ- नहीं, इस ग्रन्थका साक्षात् फल चमत्कारक तत्वज्ञान की प्राप्ति है और परम्परासे सम्पूर्ण पापोंका क्षय करना फल है । इन दो स्वरूप फलो करके यह ग्रन्थ फलबान है।
कुतस्तदाध्यायपातिसंघातपातनं सिद्धम् ? विद्यास्पदत्वात् । यत्पुनर्न तथाविधं न तद्विद्यास्पदं यथा पापानुष्ठानमिति समर्थयिष्यते.
यदि यहां पर कोई प्रश्न करें कि उक्त दोनों फल यानी ज्ञानका सभागभ और कौके क्षयका प्रेरकपना ये प्रथम कैसे सिद्ध हुए ! बताओ, आचार्य उत्तर कहते हैं कि इसका हेतु यह है कि यह ग्रन्थ पूर्वाचायोंके ज्ञान को आश्रय मानकर लिखा गया है। इस अनुमान में व्यतिरेक दृष्टान्त दिखाते हैं। जो कोई वाक्य फिर तत्त्वबोध और कर्मोकी हानी का कारण नहीं है, वह पूर्वाचार्योंके ज्ञान के अधीन भी नहीं है। जैसे हुआ खेलना, चोरी करना आदि पाप कर्म में नियुक्त करनेवाले वाक्य हैं । उक्त हेतुका प्रकृत साध्म के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। इसका आगे समर्थन कर देखेंगे। समर्थन कर देनेसे ही हेतु पुष्ट होता है ।
___ विद्यास्पदं कुतस्तत् ? शाकार कहता है कि ग्रन्थ के दो फल सिद्ध करनेमे पूर्वाचार्योंके ज्ञानका अवलम्ब लेकर लिखा जाना हेतु दिया था वह हेतु पक्ष में से सिद्ध होता है ? अर्थात् किस कारण वह अन्य विधाका आस्पद मान लिया जाय ? न्यायशास्त्रों राजाकी आज्ञा नहीं चलती है।
इति चेत् ! श्रीवर्धमानत्वात् प्रतिस्थानमविसंवादलक्षणया हि श्रिया वर्धमान कथमविद्यास्पदं नामातिप्रसंगात् ।
ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि ऐसी असिद्ध हेत्वाभास उठानेकी सम्भावना है तब तो उस का उत्तर यह है कि
श्री से बढ़ रहा होनेके कारण यह ग्रन्थ पूर्वज्ञानियोंके अवलम्बसे लिखा गया सिद्ध होता है। जिससे जानी जावे चांदी और पकही जाचे सीप ऐसे झूठे ज्ञानको विसंवादी कहते हैं तथा स्नान, पान गोता लगाना इस अर्थ क्रियाओंको करनेवाले जल आदिके समीचीन ज्ञान को अविसंवादि ज्ञान कहते हैं। ज्ञान की शोभा तो जिसको जाना जावे, उसी प्रवृत्ति की जावे और