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________________ २२ तत्त्वार्थचिंतामणिः इति ब्रुवाणं प्रत्येतदुच्यते । ऐसी तर्काको बोलनेवाले प्रतिवादीके प्रति यह कहा जाता है । विद्यास्पदं तवार्थश्लोकवार्त्तिकं प्रवक्ष्यामीति, विद्या पूर्वाचार्याशास्त्राणि सम्यग्ज्ञानलक्षणविद्यापूर्वकत्वाचा एवास्पदमस्येति विद्यास्पदम् । न पूर्वशास्त्रानाश्रयं यतः स्वरुचिविरचितत्वादनादेयं प्रेक्षावतां भवेदिति यावत् । जिस श्लोकवार्त्तिक ग्रन्थको मैं कहूंगा, वह विवास्पद है । गुरुपरिपाटीसे चले आये हुए पूर्व आधायके शास्त्र ही विद्या कहलाते हैं। क्योंकि सम्यग्ज्ञानरूपी पूर्ववर्तिनी विद्यासे वे पैदा हुए हैं। यहां कारण का कार्यमें उपचार है । वे विद्यास्वरूप शास्त्र ही इस लोकवाकि अन्थ आधार हैं । अतः पूर्व शास्त्रोंको नहीं अवलम्ब करके यह अन्य अवतीर्ण नहीं हुआ है, जिससे कि योंही अपनी रुचिसे बनाये जाने के कारण विचारशीलोंके पठन पाठन करने में ग्रहण योग्य न होता । इस ग्रन्थका प्रमेय नया नहीं है, केवल शब्द और युक्तियोंकी योजना हमारी सम्पत्ति है, यह फलितार्थ हुआ । पिष्टपेषणबद्ध्यर्थे स्यात्, इत्यप्यचोद्यम् | कोई आक्षेप कर रहा है कि यदि पूर्वाचार्यों से कहे हुए प्रमेयका ही इस ग्रन्थ में प्रतिपादन है, तो फिर भी पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ पडा । निष्फल ग्रन्थ तो नहीं बनाना चाहिये । अन्धकार कहते हैं कि यह पूर्व में किया गया दूसरा कटाक्ष भी अनुचित है । अध्यायघातिसंघातघातनमिति विशेषणेन साफल्यप्रतिपादनात् । धियः समागमो हि ध्यायः आसमन्ताद्ध्यायोऽस्मादित्याध्यायं तच्च तद्धातिसंघातघातनं चेत्याध्यायघातिसंघातघातनम् यस्माच्च प्रेक्षावतां समन्ततः प्रज्ञा समागमो यच्च मुमुक्षून् स्वयं घातिसंघात घनतः प्रयोजयति तन्निमित्तकारणत्वात् । तत्कथमफलमा वेदयितुं शक्यं, प्रज्ञातिशयस कलकल्मषक्षयकरणलक्षणेन फलेन फलवत्वात् । CC क्योंकि तत्त्वार्थ लोकवार्तिक का दूसरा विशेषण " आध्यायघातिसंघातघातनम् " है, इससे की सफलता बतलायी जाती है । पहिले आध्याय शब्द क्ता " प्रत्ययान्त अव्यय था. इस क्ता को प्य हो जाता है. अब इण् धातुसे घञ् प्रत्यय करके आय कृदन्त शब्द बनाया है. के पूर्व में घी उपपद और आङ् उपसर्ग लगा दिया है. इस कारण ध्याय का अर्थ है बुद्धि का आगमन अर्थात् चारों तरफ से बुद्धिका आगमन हो जिसमे उसको आध्याय कहते हैं. बुद्धिक समागम का कारण होकर और जो वह घातियों के समुदायका नाश करने वाला होवे । वैसा यह ग्रन्थ
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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