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________________ तत्त्वार्थचिंतामणिः वही प्राप्त होवे ऐसे अविसंवाद से है । उस भविसंवाद रूप लक्ष्मीसे यह ग्रन्थ प्रत्येक स्थलपर वृद्धि ( पुष्टि ) को प्राप्त हो रहा है तो फिर पूर्वाचायोंके ज्ञानको अवलम्ब करनेशला भला कैसे नहीं माना जावे ? यदि पूर्वोक्त लक्ष्मीसे पुष्ट श्लोकवार्तिक सदृश ग्रन्थ भी गुरुपरिपाटीके द्वार आये हुए नहीं माने जावेगे तो गन्धहस्तिमहाभाष्य, तत्त्वार्थराजवानिक, समयपाहुड आदि ग्रन्थ भी गुरुआम्नायपूर्वक न सिद्ध हो सकेगे । यह अतिप्रसंग दोष आजावेगा। देवं सप्रयोजनत्वप्रतिपादनपरमादिश्लोकवाक्यं प्रयुक्तमवगम्यते । ___ उस काग़ण गों शाभिगम प्रयोग किये गये आदिक मंगलाचरण-कोकरूप बाक्यकी दूसरे अर्थ में भी इस प्रकार तत्परता होने से इस ग्रन्थ के दोनों फलाका प्रतिपादन कर दिया गया है । श्लोकयार्तिकके विशेषणोंको हेतु बनाकर प्रयोजनबालापना जान लिया जाता है । भावार्थ- श्री वर्धमानपनेसे विद्यास्पदपना और विद्यास्पदपने से बुद्धि समागमपूर्वक कर्मक्षय में प्रेरकपना तथा बुद्धि समागमसहित पातिसंघातघातन से सफलपना इस ग्रन्थ में सिद्ध हो जाता है ।। ननु किमर्थमिदं प्रयुज्यते श्रोहजनानां प्रवर्तनार्थमिति चेत्, ते यदि श्रध्दानुसारिपास्तदा व्यर्थस्तत्प्रयोगस्तमन्तरेणापि यथा कथञ्चित्तेषां शास्त्रश्रवणे प्रवर्तयितुं शक्यत्वात् । यदि प्रेक्षावन्तस्ते तदाकभमप्रमाणकात्वाक्यात्प्रवर्तन्ते प्रेक्षावविरोधादिति केचित् । ___ यहां शंका है कि फल बतलाने वाले " श्री वर्धमानमाध्याय " इत्यादि प्रथम श्लोकके लिखनेका क्या प्रयोजन है ? श्रोताओंको श्लोकवार्तिक ग्रन्थ सुननेकी प्रवृत्तिके लिये पूर्वमें श्लोक लिखा है । उक्त शंकाका यह उत्तर ठीक नहीं हो सकता है। क्योंकि यदि वे भव्यजीव श्रद्धाके अनुसार चलनेवाले हैं तो उनके लिये प्रयोजन घतलानेवाले आदि श्लोकका बोलना निरर्थक है। कारण कि शास्त्र सुनने, भक्ति रखनेवाले सज्जन तो विना फल बतलाये भी शास्त्र सुनने में चाहे जैसे किसी प्रकारसे प्रवृत्ति कर सकते हैं और यदि वे हिताहित्रको विचार कर परीक्षा करके प्रस्थ को सुननेवाले हैं तो नहीं प्रमाण रस्यनेवाले आदिके कोरे फल दिखामवाले आज्ञावाक्यसे भला कैसे प्रवृत्ति करेंगे ? विना परीक्षा किये चाहे किसी भी वाक्यको सुनकर तदनुसार काम करनेवाले जीवको प्रेक्षावान्भनेका विरोध है । सम्यग्ज्ञान द्वारा हेयोपादेय के विचारको मेक्षा कहते हैं । इस प्रकार फल बतलानेवाले आदि श्लोकका उच्चारण आज्ञाप्रधानी और परीक्षाप्रधानी श्रोताओंके प्रति व्यर्थ ही है, ऐसी कोई शंका करते हैं। तदसारम्, प्रयोजनवाक्यस्य सप्रमाणकत्वनिश्चयात् । आचार्य कहते हैं कि किसी की इस प्रकारकी शंका में कोई मी सार नहीं है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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