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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ३५ atedयता सिद्ध नहीं है। मीमांसकोंने भी इस सूत्र को बनानेवाले जैमिनि ऋषि माने हैं. मीमांसक लोग ज्योतिष्टोमयज्ञादि कर्मकाण्ड के प्रतिपादक वेदवाक्योंको ही प्रमाण मानते हैं । अद्वैतस्वरूप अर्थ निमस हो रहे विधिको कहनेवाले या प्रयोजनको कहनेवाले वाक्योंकी प्रमाणता उनको इष्ट नहीं है । अन्यथा यानी यदि मीमांसक लोग कर्मके कहनेवाले वाक्यों के अतिरिक्त वाक्य को भी प्रमाण मानेंगे तो अद्वैतवादके प्रतिपादक "एकमेवाद्वयं ब्रह्म नो नाना " अथवा सर्वज्ञको सिद्ध करनेवाले " यः सर्वज्ञः स सर्ववित्" इत्यादि अर्थवादवाक्य भी प्रमाण मानने पडेंगे | अतिप्रसंग हो जायेगा । www. यदि प्रयोजनवाक्यको नैयायिकों के मतानुसार विशिष्ट पुरुषके द्वारा बनाये हुए पौरुषेय आगमस्वरूप ही मानोगे तो उस नैयायिक बने हुए आगमको मापने का निश्चय कैसे किया जावेगा ? अपने आपहीसे आगनमें प्रमाण वनेका निश्चय कर लिया जाता है यह कहना ठीक नहीं । क्योंकि ज्ञानसामान्य जाननेवाले ही कारणोंसे प्रामाण्यका भी निश्चय स्वतः कर लिया जाता है, इस प्रकार मीमांसकों के एकान्सका भविष्यमै खण्डन कर दिया जावेगा और आप नैयायिक लोग तो ज्ञान स्वतःही प्रमाणपनेका निश्चय होना मानते भी नहीं हैं. अन्यथा अपसिद्धान्त हो जायगा । पदों का ज्ञान, संकेतग्रहण, शब्दका प्रत्यक्ष आदि आगमके सामान्य कारणों के अतिरिक्त आसति, आकांक्षा, योग्यता और तात्पर्यरूप कारणसे परतः ही आगममे प्रामाण्यका निर्णय होता है, इस प्रकार अन्य नैयायिक मान बैठे हैं, उन नैयायिकों के मतमें भी प्रयोजन शक्य आगमप्रमाणरूप सिद्ध नहीं होता है । क्योंकि प्रकृत जलके ज्ञानको दूसरे ठंडी वायु आदि के ज्ञानसे प्रमाणपना आवेगा। और ठंडी वायु आदिके ज्ञानको तीसरे ज्ञानसे प्रामाण्य माना जायेगा, जबतक उत्तरज्ञान से पूर्व ज्ञानोंको प्रमाणपना न आवेगा तब तक आकांक्षा शांत न होनेसे उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी धारा चलेगी, क्योंकि जो दूसरेका ज्ञापक है, वह किसी न किसी ज्ञानसे ज्ञान होना चाहिये । इस तरह अवस्थादोष आता है । द्वितीय ज्ञानको प्रथम ज्ञानसे प्रामाण्य मानोगे और प्रथम ज्ञानको द्वितीय ज्ञान से प्रमाणपना लावोगे तो अन्योन्याश्रयदोष भी आयेगा | एवं संवाद, प्रवृत्ति और प्रमाणपना इन तीनोंसे प्रमाणभनेका निश्चय माना जाय तो चक्रकदोप मी आता है। इत्यादि दोषोंसे दूषित हो जानेके कारण नैयायिकों के परतः प्रामाण्यका भविष्य में विस्तारसं खण्डन करेंगे | तथा परतः प्रानाम्यवाद लोकप्रसिद्ध प्रतीतिस भी विशेष आता है। सभी लोग अभ्यासदशा मे ज्ञान होनेके समग्रही उसके प्रामाण्यको भी जान लेते हैं। } परार्थानुमानमादौ प्रयोजनवचनमित्यपरे तेऽपि न युक्तिवादिनः साध्यसाधनयोर्ध्याशिप्रतिपत्तौ तर्कस्य प्रमाणस्याऽनभ्युपगमात्प्रत्यवस्थानुमानस्य वा तत्रासमर्थत्वेन साथ
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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