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________________ तत्त्वार्धचिन्तामणिः ही कहना चाहिये "। इस पर आचार्य कहते हैं कि सम तो विस्तृत टीकाप्रन्थों में मूलकारसे न कहे हुए प्रयोजनवाश्यका भी प्रकरणसे जान कर हमको भी प्रयोग करना तुम्हारे कहनेसे ही सिद्ध हुआ | हाँ ! संक्षेपसे शास्त्र लिखनेकी प्रवृत्तिमें उसका प्रयोग न करना ठीक है । यही आपका भी अभिप्राय है। ततः क्वचिद्गम्यमानं सप्रयोजनस्वसाधनमप्रयुक्तमपि सकलशास्त्रव्याख्यानेन समयते, कचित्प्रयुज्यमानमिति नैकान्तः स्याद्वादिनामविरोधात्। ___ उस कारण अब तक यह सिद्ध हुआ कि संक्षिप्त मन्थोमें बिना कहे हुए अर्थात् प्रकरणसे ही जाने गये प्रयोजनसहितपनको बतानेवाल साधनवाक्यका और कहे हुए वाक्यका भी अभिम सम्पूर्ण शास्त्रके व्याख्यानद्वारा समर्थन किया जाता है, तथा विस्तृतग्रन्थों में कण्ठोक्क प्रयोजनवाक्यका ही पूरे ग्रन्थसे समर्थन (पोषण) किया जाता है, इस प्रकार अनेकान्तपक्षको स्वीकार करनेपर स्याद्वादियों के मतमें कोई विशेष नहीं है, पूर्वमें कहा हुआ आप बौद्रोका एकान्त ठीक नहीं है, उसमें विरोध आता है । सर्वधैकान्तवादिना तु न प्रयोजनवास्योपन्यासो युक्तस्तस्याप्रमाणत्वाद् । सर्वथा एकान्तपक्षका आग्रह करनेवाले बौद्ध, मीर्मासक, नैयायिकोंके शास्त्रोम तो प्रयोजनवाक्यका कथन करना युक्त ही नहीं है. क्योंकि प्रयोजनवाश्यको ये लोग प्रमाण नहीं मानते हैं । तदागमः प्रमाणमिति चेत् सोऽपौरुषेयः पौरुषेयो वा न तावदाधपथकक्षीकरणं, "अथातो धर्मजिज्ञासेति प्रयोजनवाक्यस्यापौरुषेयत्वासिद्धः। स्वरूपेर्थे तस्य प्रामाण्यानिदेशान्यथातिप्रसंगापौरुषेय एवागमः प्रयोजनवाक्यमिति चेत् । कुतोऽस्य प्रामाण्यनिश्चयः ? स्थत एवेति चेत् न, स्वतः प्रामाण्यकान्तस्य निराकरिष्यमाणत्वात् । परत एवागमस्य प्रामाण्यमित्यन्ये, तेषामपि ने प्रमाण सिद्धयति, परतः प्रामाण्यस्यानवस्थादिदोपक्षितत्वेन प्रतिक्षेप्यमानत्वात्प्रतीतिविरोधात्। कोई पण्डित कह रहा है कि प्रयोजन कहनेवाले वचनको हम लोग आगमप्रमाणरूप मानते हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम तुम्हारे ऊपर दो पक्ष उठाते हैं कि आपका यह आगम किसी पुरुषका न बनाया होकर अनादि है या किसी पुरुषविशेषका बनाया हुआ सादि है ! पताओ, उन दोनोंसे पहला पक्ष स्वीकार करना मीमांसकोंको उचित नहीं है क्योंकि मीमांसादर्शनमे धर्मका ज्ञान हो जानारूप प्रयोजनको बतलानेवाला पहला सूत्र है "अथातो धर्मजिज्ञासा" जिसका कि अर्थ इसके अनन्तर यहाँसे धर्मके जाननेकी इच्छा है, ऐसा होता है ! अनादिस्त थ शब्द नहीं बोला जाता है। ऐसे प्रशेजन कहनेशले वाक्यको
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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