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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः सर्वत्र गम्यमानस्यैव तस्य समर्थन सिद्धेः प्रयोगो न युक्त इति चेत्संक्षिप्तशास्त्र - प्रवृत्तौ सविस्तरशास्त्रप्रवृत्तौ वा १ प्रथमपक्षे न किंचिदनिष्टं सूत्रकारेण तस्याप्रयोगात् । सामर्थ्याद्गम्यमानस्यैव सूत्रसंदर्भेण समर्थनात् । द्वितीयपक्षे तु तस्याप्रयोगे प्रतिज्ञोपनयनिगमनप्रयोगविशेधः । ३३ पुनरपि शंकाकार यों कहता है कि प्रयोजन बतानेवाले साधनक कहनेकी आवश्यकता नहीं, विना कहे हुए भी अर्थापत्ति जाने हुए प्रयोजनवाक्यका समर्थन होना सिद्ध है, इस कथनपर आचार्य दो पक्ष उठाते हैं कि शंकाकारका यह उक्तकथन संक्षेपसे शास्त्र कहनेवालोंकी प्रवृत्ति घटता है अथवा विस्तारसहित शास्त्र लिखनेवालोंको प्रवृत्तिमं भो?, यदि पहिला पक्ष मानोगे तो हमको कोई बाधा नहीं है, क्योंकि सूत्रकार उमास्वामी महाराजने प्रयोजनवाक्य का कण्ठोक्त प्रयोग नहीं किया है किन्तु भविष्य के सूत्रोंकी रचना करके प्रकरण की सामर्थ्य से जाने हुए प्रयोजनका ही समर्थन किया है। और यदि तुम दूसरा पक्ष ग्रहण करोगे अर्थात् विस्तृतशास्त्रों में भी प्रयोजनवाक्यका प्रयोग न करना स्वीकार करोगे तब तो पक्षमें साध्यको कहनारूप प्रतिज्ञा तथा व्याप्तिको दिखलाये हुए हेतुका पक्षमे उपसंहार करने स्वरूप उपनय और साध्या निर्णय कर पक्ष कथन करनरूप निगमन इन तीनोंका भी प्रयोग करना विरुद्ध पड़ेगा । प्रतिज्ञानिगमनयोरप्रयोग एवेति चेत्, तद्वत्पक्षधर्मेोपसंहारस्यापि प्रयोगो मा भूत् । यत्सर्वं क्षणिक मित्युक्ते शब्दादौ सच्चस्य सामर्थ्याद्गम्यमानत्वात् । पुनः भी बुद्धमतानुयायी शंकाकारका कहना है कि प्रतिज्ञा और निगमनका कण्ठसे प्रयोग करना तो हम सर्वथा नहीं मानते हैं यो अवधारण करनेपर तो आचार्य कहते हैं कि तुम्हारे यहाँ प्रतिज्ञा और निगमनके समान पक्षमै व्याप्तियुक्त हेतुके रखने का उपसंहाररूप उपनयका भी प्रयोग नही होना चाहिये, आप बौद्धोंने जो जो सत् हैं, वे वे सम्पूर्ण पदार्थ द्वितीयक्षण में नष्ट हो जाते हैं ऐसी व्याप्तिका कथन कर चुकनेपर सत्त्वहेतुका शब्द, बिजली आदिमें उपसंहार किया है, यह उपनय भी बिना कहे हुए अनुमानके प्रकरण से जाना जा सकता था, फिर आपने क्यों व्यर्थ ही कहा ? बताओ । I तस्यापि कचिदप्रयोगोऽभीष्ट एव सविस्तर विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवल " इति वचमात्, गम्यमानस्यापि सिद्धः प्रयोगः संक्षिप्तप्रवृत्तावेव तस्याप्रयोगात् । यदि शंकाकार पुनरपि ऐसा कहेगा कि कहीं कहीं उस उपनयका प्रयोग न करना भी हमको अच्छा - इष्ट है, क्योंकि हमारे बौद्धग्रन्थों में लिखा हुआ है कि “विद्वानोंके प्रति केवल हेतु
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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