________________
३२
तत्त्वार्थचिंतामणिः
औद्ध शङ्काकार कहता है कि ग्रन्थका फलवान्पना तो हम मान चुके, किन्तु प्रन्थका पहलेसे ही प्रयोजन कह देना व्यर्थ है। क्योंकि इसमें छोटापन प्रतीत होता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यदि ऐसी शंका करोगे तो आपके अभिप्रेत सत्त्व हेतुसे क्षाणिकत्त्व को सिद्ध करने वाले अनुमानमें हेतुके लिये [के अर्थ ] समर्थन की सामग्री के कहने से ही साध्यरूप प्रयोजन की सिद्धि हो जावेगी तो आपका मी उसके पहलेसे ही हेतु का कथन करना व्यर्थ क्यों न होगा । बताओ!
साधनस्यानभिधाने समर्थनमनाश्रयमेवेति चेत् , प्रयोजनवच्चस्थावचने तत्समर्थन फथमनाश्रयं न स्यात् ।
साधनके न कहने पर समर्थन करना आश्रयरहित हो जायेगा, अतः समर्थन के अवलम्ब के लिये साधनका प्रयोग करना आवश्यक है यदि शंकाकार ऐसा कहेंगे तो हम भी कहते हैं कि ग्रन्थकी आदि में यदि फल-बत्तानेवाला वाक्य न कहा जावेगा तो उत्तर ग्रन्ध से प्रजोजन का समर्थन करना विना चलनामा पनों न हो जायेगा। भावार्थ - आदिमें प्रयोजनका सूत्र बाक्य करने पर ही भविष्य के श्लोकवार्मिक ग्रन्थ से फल का स्पष्ट करना ठीक समझा जावेगा। विना फल बताए लम्बा, चौडा विवरण करना असंगत होगा। फलका उद्देश न करके मतिमन्द भी प्रवृत्त नहीं होता है, फिर विचारशील तो कैसे प्रवृत्त हो सकता है ! अतः प्रयोजन बताने में तुच्छता नहीं, प्रत्युत प्रवृत्ति करानमै दृढता आजाती है।
ये तु प्रतिज्ञामनभिधाय तत्साधनाय हेतूपन्यासं कुर्वाणाः साधनमभिहितमेव समर्थयन्ते ते कथं स्वस्थाः ।
जो पण्डित पक्षने साध्यके रहने रूप प्रतिज्ञा को न कह कर उस प्रतिज्ञाको सिद्ध करने के लिये केवल हेतुका पचन करते हुए कहे हुए साधन का ही समर्थन करते हैं, वे बुद्धमतानुयायी तो किसी भी प्रकार निराकुल नहीं हैं। क्योंकि पक्ष के बिना कहे समर्थन कहाँ किया जायेगा । कहिले,
पक्षस्थ गम्यमानस्य साधनाददोष इति चेत्प्रयोजनबत्तसाधनस्य गम्यमानस्य समर्थने को दोषः संमाध्यते ?
अनुक्त पक्ष भी प्रकरण और अभिप्रायसे समझ लिया जाता है, उस पक्षमे हेतुका समर्थन कर दिया जावेगा यदि इस प्रकार शंकाकार पुनः कहेगा तो उसी प्रकार हमको भी आदि वाक्यके कथन मात्रसे बिना कहे हुए प्रकरणसे ही जाने गये प्रयोजनवान्पनको बताने वाले विद्यास्पद हेतुके समर्थन करने में कौन दोष संभावित है ! ! अर्थात् कोई क्षति नहीं पड़ती है।