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________________ तत्त्वार्थचितामणिः स्वष्टानुमानेन व्यभिचाराम , न हि तत्समर्थनापेक्षसाधनं न भवति प्रतिवादिविप्रतिपसौ तद्विनिवृत्तये साधनसमवस्वादश्वपित्वात कांचिदसमर्षितसाधनवचने असाधनांगवचनस्यष्टेः। जो समर्थन की अपेक्षा करता है, यदि वह परार्थानुमान न माना जाय तो हर एक वादी को अपने अभिप्रेत अनुमान से व्यभिचार हो जावेगा। क्योंकि प्रत्येक वादी अपने अभीष्ट साधन को सिद्ध करने के लिये प्रतिवादीके प्रति व्याप्ति को दिखलाते हुए ही साधनका प्रयोग करता है। कचित् स्पष्ट रूप से यदि समर्थन नहीं करता तो उसका अभिपाय यह नहीं है कि यहाँ समर्थन है ही नहीं। तभी तो हेतुके साथ साध्यकी व्याप्ति को दिखला कर पझमें हेतु के रहने रूप समर्थन यदि प्रतिवादीको विवादास्पद [संशयग्रस्त ] हो जाय तो उस संशयके परिहार के लिये हेतु का समर्थन करना बादीको अत्यावश्यक हो जावेगा। समर्थन कर देनेसे वह वादी का दिया हुआ अनुमान परमार्थानुमान नहीं है यह नहीं समझना । जो कोई धादी विना समर्थन किये हुए केवल पंचमी विभक्त्यन्त साधन वचन कह देते हैं, उनके ऊपर "असाधनांगवचन " नाम का निग्रहस्थान दोष देना हम दृष्ट करते हैं। बादी को उचित है कि अपने साध्य को सिद्ध करने के लिये व्याप्ति, समर्थन और शान्त रहना, इन सभी गुणो को हेतु में दिखलाने। उक्त गुणों को न कह कर केवल साधनका कहना बादीके लिये असाधनांग बचन नाम का दोष है.। प्रकृतानुमानहेतोरशक्यसमर्थनत्वमपि नाशंकनीयं, सदुत्तरग्रन्थेन तद्धेतोसमर्थननिश्चयात् . सकलशास्त्रव्याख्यानात्तद्धतुसमर्थनप्रवणातवार्थश्लोकवार्तिकस्य प्रयोजनववसिद्धेः । बुद्धिका समागम और कर्मों का नाश इन दोनो प्रयोजनोंको अनुमान से सिद्ध करने वाले प्रकरणप्राप्त विद्यासदत्व हेतुका समर्थन हो ही नहीं सकता यह शंका भी न करना चाहिये। क्योंकि स्वामीजीने आगे के श्लोकवार्तिक ग्रन्थके द्वारा उस विद्यास्पदत्य हेतुका निश्चित रूपसे साध्य के साथ समर्थन किया है। प्रसिद्ध होरहे तत्वार्थसूत्रका. व्याख्यान करने वाला सम्पूर्ण श्लोकवार्तिक ग्रन्थ इस बियास्पद हेतुके समर्थन करने में ही तत्पर है। इस कारण तत्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थको प्रयोजनसहितपना सिद्ध हुआ। अबतक ग्रन्थको फलसहित बताने वाले प्रकरणका उपसंहार कर दिया गया है। प्रागेवापार्थक प्रयोजनवचनमिति चेत्, तर्हि स्वेष्टानुमाने हेत्वसमर्थनप्रपंचाभिधानादेव साध्यार्थसिद्धेस्ततः पूर्व हेतूपन्यासोपार्थकः किन भवेत्।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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