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________________ तत्त्वार्थचिंतामणिः लोकवार्तिकसे प्रमाणपना माना जाय तो अन्योन्याय दोष भी वे कार कहते हैं कि यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि ये दोनों दोष स्याद्वादियों को नहीं लगते हैं, हमने अपने ग्राम संबन्धी तालाबके जलज्ञान या अन्धेरेमें अपने घरके टेड़े नीचे, ऊंचे, सोपान (जीना) के समान परिचित विषयों के ज्ञान प्रामाण्यका निश्चय स्वतः माना है। इस कारण अनवस्थादोष निवृत्त हो जाता है। तथा ग्रामान्तरमे जलज्ञान के प्रामाण्य का संशय होने पर स्नान, पान, अबगाइन रूप अर्थक्रियाके ज्ञान से निर्णय होना माना है। अतः अन्योन्याश्रय दोष भी नहीं रहता है। पूर्वके अनभ्यस्त विषयको जाननेवाले ज्ञान का अभ्यस्त विषय को जाननेवाले ज्ञानान्तर से प्रमाणपना प्रतीत किया जाता है। अर्थक्रियाके ज्ञान में भी प्रामाण्यका संशय होने पर तीसरे ज्ञान से निर्णय कर लिया जाता है । अत्यन्त विवादस्थल में भी तीन, चार ज्ञानोंसे अधिक की आवश्यकता नहीं होती है। अन्तका ज्ञान स्वतः प्रमाणात्मक है, अतः आकांक्षा शान्त होजाती है । तथानुमानमूलमेतद्वाक्य, स्वयं स्वार्थानुमानेन निश्चितस्यार्थस्य परार्धानुमानरूपेण प्रयुक्तत्वात्. जिस प्रकार आदि वाक्यको आगममूलक सिद्ध किया जा चुका है, वैसे ही विद्यानन्द स्वामी का प्रयोजन बताने वाले इस आदिवाक्य का प्रमेय अनुमान प्रमाण के मी आश्रित है। क्योंकि विद्यानन्द स्वामीने स्वयं व्याप्ति ग्रहण कर किये गये स्वार्थानुमानसे निश्चित अर्थको परार्थानुमानरूप बना कर प्रयोग कर दिया है। स्वयं व्यासिको ग्रहण कर अपने लिये किये गये अनुमानको स्वार्थानुमान कहते हैं और स्वयं अनुमान से साध्यका निश्चय कर दूसरे को समझाने के लिये जो वचन बोला जाता है, उसको परार्थानुमान कहते हैं। यहाँ गुरु के ज्ञान का कार्य होने से और शिष्य के ज्ञान का कारण होने से वचन को भी उपचार से प्रमाण मान लिया गया है । वस्तुतः शिष्य का ज्ञान परार्थानुमान है. । समर्थनापेक्षसाधनवान प्रयोजनवाक्यं पराथोंनुमानरूपम्, इति चेन्न । यहाँ किसी का पूर्व पक्ष है कि-"विद्यास्पदल" हेतु अपने समर्थन कराने की अपेक्षा रखता है। अतः फल बताने वाला बाक्य परार्थानुमानरूप नहीं हो सकता. जो अनुमान समर्थन की अपेक्षा नहीं रखता है, वही परार्थानुमान है। जैसे कि स्वयं वहि के साथ धूमकी व्यामि नाननेवालेको धूम दिखा कर विना समर्थन किये ही अमि का ज्ञान करा दिया जाता है, वह परार्थानुमान कहा जाता है। हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति विखलाकर हेतु के पक्षमें रहने को समर्थन कहते हैं, ऐसा समर्थन जहाँ होता है, वहाँ परार्थानुमान नहीं माना जाता है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा तो नहीं कह सकते हो । क्योंकिः
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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