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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
यिष्यमाणत्वात्। ये स्वप्रमाणकादेव विकल्पज्ञानाच्योर्व्याप्तिप्रतिपचिमाहुस्तेषां प्रत्यक्षानुमानप्रमाणत्वसमर्थनमनर्थकमेवाऽप्रमाणादेव प्रत्यक्षानुमेयार्थप्रतिपत्चिप्रसंगात् ।
अन्धकारको उस ग्रन्थके प्रमेयोंके ज्ञानसे स्वयं तो कुछ प्रयोजन सिद्ध करना ही नहीं है क्योंकि ग्रन्थकर्ताको तो ग्रन्थरचनाकं पूर्वमें ही भावग्रन्थसे प्रबोध और कर्महानिरूप फल प्राप्त हो चुका है । भविष्य शिष्यों के लिये उस फलकी प्राप्ति हो इस परोपकार बुद्धिसे प्रेरित होकर अन्धके आदि शास्त्रकारका फल बतलाना उपयोगी है | अतः स्वयं अपनी आत्मारूप दृष्टान्तमै निश्चित किये हुए अविनाभाव रखनेवाले विद्यास्पद हेतुसे सज्ज्ञानकी प्राप्ति और कमौका नाश रूप साध्यका ज्ञान करानारूप प्रयोजनका प्रतिपादक वाक्य परार्थानुमानस्वरूप है, ऐसा कोई न्यारे वृद्धवैशेषिक कहते हैं, और साथ अपने ग्रन्थोंके प्रारम्भ में " द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाभावानां सप्तानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्यज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः । इत्यादि प्रयोजन वाक्यों को भी परार्थानुमान रूपही सिद्ध हुआ मानते हैं। आचार्य " कहते हैं कि उन वैशेषिकका कमी युक्तिवाद से रहित है क्योंकि साध्य और साधनकी व्यासिका ग्रहण तर्कज्ञानसे ही हो सकता है । सब देश और काल में उपसंहार करके साध्य और साधनके संबन्धको जाननेवाले तर्करूप ज्ञानको वैशेषिक प्रमाण नहीं मानते हैं । तर्क मिथ्याज्ञानका भेद माना है, उनके यहाँ प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण माने गये हैं, उक्त दोनों प्रमाण उस सर्व देशकालोपसंहारवाली व्याप्सिको ग्रहण करने में असमर्थ हैं इसको भविष्य में सिद्ध करेंगे।
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जो बौद्ध लोग साध्य और साधन के संबन्ध ( वस्तुतः संबन्ध नहीं है) की कल्पना करनेवाले प्रभागरूप सर्विकल्पक व्याप्तिज्ञानसे उन ही हेतु और साध्यके अविनाभाव संबन्धका विकल्पज्ञान होजाना कहते हैं, उन बौद्धोंको अपने माने गये प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञानको भी प्रमाण की समर्थनपूर्वक सिद्धि करना व्यर्थ पडेगा । क्योंकि अमभागरूप तर्कज्ञानसे जैसे अविनाभावका ज्ञान हो जाता है उसी प्रत्यक्ष और अनुमानसे जानने योग्य पदार्थोंका अप्रमाणरूप प्रत्यक्ष और अनुमानसे भी ज्ञान हो जानेका प्रसंग आ जायेगा, व्यर्थ ही प्रमाणत्वका बोझ वय लावा जावे ? |
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ततो न प्रयोजनवाक्यं स्याद्वादविद्विषां किंचित्प्रमाणं ममाणादिव्यवस्थानासंभवाच्च न तेषां तत्प्रमाणमिति शास्त्रप्रणयनमेवासंभवि विभाव्यतां किं पुनः प्रयोजनवाक्योपन्यसनम् ।
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उस कारण अबतक सिद्ध हुआ कि स्याद्वाद सिद्धान्तसे द्वेष करनेवाले मीमांसक, वैशेषिक, नैयायिक, और बौद्धों के शास्त्रोंकी आदिमें लिखे हुए प्रयोजन बतानेवाले यतो ऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः स धर्मः " जिससे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है, वह धर्म है इत्यादि वाक्य किसी भी प्रकार से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमप्रमाणरूप नहीं हैं. ।