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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ५८५ यदि कूटस्थ नित्य आत्माको कहनेवाले वादी आत्माको अनित्य हो जाने के प्रसंगकी आपचिकी कल्पना कर आत्मा उस त्रिलक्षणपनेसे भी डरते हैं, तो वे नैयायिक, वैशेषिक विचारे आमासे सर्वथा भिन्न माने गये गुणके साथ आत्माका सम्बन्ध होना कैसे भी नहीं स्वीकार कर सकते हैं। जो गुण आत्मासे सर्वथा भिन्न पडा हुआ है, वह असंबद्ध गुण उस आत्माका ही है, यह व्यवस्था भी तो नहीं की जा सकती है, जिससे कि समवाय संबंध हो जानेसे वे गुण विवक्षित आमाके नियत कर दिये जाते है। इस प्रकार उनका पूर्वोक्त हेतु मान लिया जाता | क्योंकि समवाय संबंध तो ज्ञानको आकाशमै जोड देनेके लिये भी वैसा ही है । वह तो एक ही है । इस कारण हम जैनोंने पहिले एक सौ सत्रहवीं कारिकामें बहुत अच्छा कहा था कि कूटस्थ नित्यका एकांत पक्ष लेने पर आत्मा बंध, मोक्ष, तत्त्वज्ञान, दीक्षा आदि कार्योका कारण नहीं हो सकता है। क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से अनवस्था हो जाती है । भिन्न कहे गये गुणोंका समवाय संबंध और मिन माने गये समवायका भिन्न हो रहा स्वरूपसंबंध आदि संबंध कल्पना करते करते अनवस्था है और त्रिलक्षण माने विना आपके कूटस्थ नित्य स्वीकार किये गये आत्माकी अवस्थिति ( सिद्धि ) भी नहीं हो सकती है । क्षणक्षयेऽपि नैवास्ति कार्यकारणताञ्जसा । कस्यचित्त्वचिदत्यन्ताव्यापारादचलात्मवत् ॥ १२४ ॥ कूटस्थ नित्य के समान एक क्षणमें ही नष्ट होनेवाले आत्माने भी निर्दोष रूपसे झट कार्यकारण भाव नहीं बनता है । क्योंकि एक ही क्षणमै नष्ट होनेवाले किसी भी पदार्थका किसी भी एक कार्य में व्यापार करना अत्यन्त असम्भव है । पहिले क्षणमै आत्मलाभकर दूसरे क्षण ही कोई कारण किसी कार्य में सहायता करता है । किन्तु जो आललाम करते ही मृत्युके मुखमें पहुंच जाता है, उसको कार्य करने का अवसर कहां ! अतः कूटस्थ निश्चल नित्य कारणसे विपरिणाम होनेके बिना जैसे किया नहीं होने पाती है, वैसे ही क्षणिक कारण भी किसी अर्थक्रिया को नहीं कर सकता है । क्षणिकाः सर्वे संस्काराः स्थिराणां कुतः क्रियेति निर्व्यापारवायां क्षणक्षयैकान्द्रे भूतिरेव क्रियाकारकव्यवहार भागिति ब्रुवाणः कथमचलात्मनि निव्यपारेपि सर्वथा भूतिरेव क्रियाकारक व्यवहारमनुसरतीति प्रतिक्षिपेत् । बौद्ध कहता है कि रूपस्कंध, वेदनास्कंध, विज्ञानस्कंध, संज्ञास्कंध और संस्कारस्कंध ये सबके सब संस्कार क्षणिक है। भला जो कूटस्थ स्थिर हैं, उनके अर्थक्रिया कैसे हो सकती है ! इस प्रकार अनेक, समुदाय, साधारणता, मरकर उत्पन्न होना, प्रत्यभिज्ञान कराना, अन्वित करना आदि व्यापारोंसे रहित होनेपर भी सर्वथा निरम्य क्षणिकके एकांतपक्ष में उत्पन्न होना ही किया है 74
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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