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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः । आपके यहाँ कर्णेन्द्रिय आकाशरूप मानी गयी है तो आकाशको आवरण करने वाला भी कोई नहीं हो सकता है, अतः श्रोत्रके संस्कारको शब्दकी अभिव्यक्ति मानना भी आपका पोली नींव पर खंडा होना है। तदुभयसंस्कारोऽभिव्यक्तिरित्ययं पक्षोऽनेनैव प्रतिक्षेप्तव्यः । जिन प्रभाकरोंने वर्ण और कर्ण दोनों के संस्कारको शब्दकी अभिव्यक्ति माना है, यह भी उनका पक्ष पूर्वोक्त प्रकरणसे ही निराकृत हुआ समझ लेना चाहिये, क्योंकि जो प्रत्येक पाहिले जोत्र माता है, वह 'एनाटकासे झोन पोरेगनने पर भी अवश्य आवमा । प्रवाहनित्यतोपगमादभिधानस्याभिव्यक्तौ नोक्तो दोष इति चेन्न, पुरुषव्यापारा स्पाक् तत्प्रवाहसद्भावे प्रमाणाभावात् । ___ मीमांसक जन | आप कूटस्थनित्यपनेसे शब्दको नित्य न मानकर बीजाङ्कुरके समान धाराप्रवाहरूपसे शब्द नित्य है, ऐसे शब्दकी अभिव्यक्ति स्वीकार करने कोई भी दोष नहीं आता है, यदि ऐसा कहोगे, सो भी ठीक नहीं है । क्योंकि बोलनेवाले पुरुषके कण्ठ, तालु आदिके व्यापार से पहिले भी प्रयाहरूपसे शब्द विधमान है, इसमें कोई भी प्रमाण नहीं है, बीज और अंकुरके पूर्व में दूसरे समान जातिवाले वीज, अंकुर विद्यमान थे ।उनसे भी पूर्वकालमें अन्य बीज, अंकुर थे । किंतु शब्द तो कण्ठ, ताल, मृदंग ढोलके द्वारा सर्वथा नया गढा जाता है वह प्रकाहरूपसे पहले था ही नहीं। प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणमिति चेत् । दर्शन और स्मरणको कारण मानकर उत्पन्न हुए पहिली और वर्तमान पर्यायको जोडरूपसे विषय करनेवाले ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे कि यह वही देवदत्त है । यह गव्य (रोझ) गौके सदृश है। इसी प्रकार यहां भी यह वही गकार है । ऐसी प्रमाणात्मक प्रत्यभिज्ञा होती है अतः उच्चारणके पहिले भी शब्द विद्यमान था । यदि आप ( मीमांसक ) ऐसा कहोगे ? तो आचार्य कहते हैं कि देखो तत्सादृश्यनिवन्धनमेकत्वानिवन्धनं या ? 1 प्रत्यभिज्ञानके कई भेद हैं । उनमें आप सदृशपनेको कारण मानकर उत्पन्न हुए सादृश्यको जाननेवाले उस प्रत्यभिज्ञानसे शब्दकी नित्यता सिद्ध करते हैं ! या एकपनको कारण मानकर पैदा हुए " यह वही है " ऐसे एकताको जाननेवाले प्रत्यभिज्ञानसे शब्दकी प्रवाहनित्यता सिद्ध करते हैं ? बताओ न तावदाद्यः पक्षः सादृश्यनिबन्धनात्प्रत्यभिज्ञानादेकशब्दप्रपाहासिद्धेः ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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