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________________ तत्त्वार्यावन्तामणिः जपापुष्पके सम्बन्धसे स्फटिकम वस्तुतः ललाई नहीं आती है, केवल उपाधिजन्य क्रियाका व्यवहार होजाता है, इसी तरहसे नैयायिककी आत्मा और सांख्योंके प्रधानमें चेतनपनेका व्यवहारमात्र हो सकता है। यदि व्यवहारसे नाममात्रके चेतमको उपदेशकी योग्यता मानोगे तब तो अनेक जह पदार्थों में भी उपदेशकी योग्यताका अतिक्रमण करनेवाला प्रसंग आवेगा, अर्थात् शरीर, प्रतिबिम्ब ( ससवीर ) आदिकोंमें भी उस योग्यताका निषेध नहीं कर सकोगे। सत्संबन्धविशेषात्परमार्थतः कस्यचिश्चेतनत्वमिति चेत्, स कोऽन्योऽन्यत्र कथञ्चिच्चेतनावादाल्यात् । यदि आप नैयायिक या कापिल लोग इन शरीर, इन्द्रिय आदिको न रहनेवाले ऐसे किसी विशेषसनंबसे योग करके किसी आत्मा और प्रधानको वस्तुतः चेतनपना मानोगे वो वह चेतनाका संबंध कथञ्चिचादात्म्यसंबंधके सिवाय दूसरा क्या होसकता है ? अर्थात् वस्तुतः इच्छा और चेतनाका तादाम्य रखनेवाला जैनोंसे माना गया आत्मा ही उपदेशके योग्य सिद्ध हुआ। ततो ज्ञानाशुपयोगस्वभावस्यैव श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य श्रेयोमार्गप्रतिपित्सायां सत्यामिदं प्रकृतं सूत्रं प्रवृत्तमिति निश्चयः । उस कारणसे अब तक यह निर्णीत हुआ कि ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभाववाले और कल्याणमार्गसे निकट भविष्यमें मुक्त होनेवाले ही आत्माकी मोक्षमार्गके जाननेकी अभिलाषा होनेपर प्रकरणप्राप्त यह पहिला सूत्र प्रवृत्त हुआ है। ममाणभूतस्य प्रबंधन घृतेः श्रोतृविशेषाभावे वकृविशेषासिद्धौ विधानानुपद्यमानत्वात् । ___ वार्तिक में पड़े हुए प्रवृत्त शब्दका यह अर्थ है कि प्रमाण होकर सत्यस्वरूप यह सूत्र ( वृत्त ) सर्वज्ञने अपनी रचनासे प्रवर्ताया है कारण कि विशिष्ट { बढिया) श्रोताओंके न होने पर विशिष्ट वक्ताकी भी असिद्धि है । और जब प्रकाण्ड वक्ता ही न होगा तो सत्य सूत्रोंका बनाना भी सिद्ध नहीं होसकता है अतः यह प्रमाणात्मक सूत्र उत्तम शिष्योंकी गाढी इच्छाके होनेपर ही अर्थरूपसे वीतराग सर्वज्ञदेवने बनाया है। किं पुनः प्रमाणमिदमित्याहअब आगेकी बार्तिकोंका अवतरण देते हैं कि जैनोंने सूत्रको प्रमाणरूप माना है तो क्या वह सूत्र प्रत्यक्ष प्रमाणरूप है या अनुमान प्रमाण अथवा आमम प्रमाणरूप है ! ऐसी शंका होनेपर आचार्य उत्तर देते हैं।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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