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तस्वाचिन्तामणिः
उदासीनं बन पुरूषसम्मकारिता गुतिसमितिबतभेदस्य बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषो. परमलक्षणत्वात् येन तथाभूतरनत्रयमेव मोक्षस्य कारणामस्माभिराखीयते । मिथ्याभिनिवेशमिथ्याज्ञानयोः प्रधानविवर्ततया समाधिविशेषकाले प्रधानसंवर्गाभावे पुरुषस्य तद्वार्जितत्वेपि स्वरूपमावावस्थानात् । तदुक्तं " तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ” इति कथित् ।
यहां कपिलमतानुयायी सांख्य जनोंके उक्त कथनका अनुवाद करते हुए अपनेही आमहको पुष्ट करते हैं कि हम आपके माने हुए सम्यादर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्रको आत्मस्वरूप नहीं मानते हैं। के तो प्रकृतिकी पर्याय है। अतः अर्थोके मिथ्याश्रद्धानसे रहित हो रहा पुरुषका स्वरूप आपके माने हुए सम्यग्दर्शनरूप नहीं पड़ता है क्योंकि उस सम्यग्दर्शनका लक्षण लो तत्त्वार्थोकी श्रद्धान करना है । तस्यायोंकर श्रद्धान करना प्रकृतिका काम है आत्माका नहीं, और मिथ्याज्ञानसे सहित हुआ पुरुषका स्वभाविक वह चैतन्य स्वरूप भी हमने आपके द्वारा माने हुए सम्यग्ज्ञानरूप वहीं इष्ट किया है क्योंकि आपके सभ्यग्ज्ञानका लक्षण अवनको और अर्थको निश्चित कर लेना है। यह काम भी मनतिका ही है। इसी तरह हमारी आत्मस्वरूप मानी हुयी उदासीनता भी आपके सम्यक्चारित्ररूप नहीं है। क्योंकि आपने उस चारित्रके गुप्ति, समिति और महाव्रत ये भेत माने हैं। तथा बहिरंग और अन्तरंग विशेष क्रियाओंके त्यागको चारित्रका लक्षण माना है यह भी प्राकृतिक है । जिससे कि इस प्रकारका रत्नत्रयही मोक्षका कारण हम लोगों से व्यवस्थित किया जाता, अर्थात् जब ये सम्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों आत्माके स्वरूप ही नहीं है तो इन तीनों को ही मोक्षका कारणपना हम कैसे विश्वस्त कर सकते हैं - मिथ्या श्रद्धान और उसके पर्युदासनिषेधसे किया गया सम्यग्दर्शन ये दोनों ही भाव हमारे यहां प्रकृतिके माने गये हैं। मिध्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञान भी प्रकृतिके परिणाम हैं। हां, असंप्रज्ञात नामक विशेष समाधिके समय प्रकृतिका संसर्ग सर्वथा छूट जाता है । ऐसा होनेपर प्रसज्यनिषेधसे उन मिश्या अंधान और मिथ्याज्ञानसे रहितपना पुरुषका स्वरूप है। किसी प्राकृतिकभाव-पदार्थरूप नहीं, तथापि 'मुक्तावस्थामें आत्मकी केवल अपने स्वरूपमे स्थिति रह जाती है। जब कि वैसा हमारे दर्शनसूत्रमें लिखा हुआ है कि मोक्षावस्थाम बैतयिता द्रष्टा आत्माका अपने स्वभामि अवस्थान हो जाता है । इस प्रकार कोई कपिलमत्तानुयायी कह रहा है। . ; तदसत् संप्रज्ञातयोगकालेऽपि तादृशः पुंरूपस्य भावात्परमनिःश्रेयसमसक्तेः। .
आचार्य कहते हैं कि उसका कहना प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हुए संप्रज्ञात समाधिके समयमें भी मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञानसे रहित होरहा - पुरूषके स्वरूपका सद्भाव है ही। कारण कि मिथ्याश्रद्धान, ज्ञानोंसे सहितपना या सम्यग्दर्शन, ज्ञान आदिसे