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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः तेनोपपन्नमेवेति तात्पर्य, सिद्धे प्रणेतरि मोक्षमार्गस्य प्रकाशकं वचनं प्रवृतं तत्कायस्वादन्यथा प्रणेतृव्यापारानेपक्षत्वप्रसंगात् । उस शरण यह सासर्य नियस हुआ कि मोक्षमार्गका प्रणयन करनेवाले श्रीसर्व जिनेन्द्रदेवके सिद्ध होनेपर ही मोक्षमार्गका प्रकाश करनेवाला वचन प्रवर्ता है। क्योंकि मोक्षमार्गका प्रतिपादक वचन उस मोशमार्गके बनानेवालेका कार्य है । सर्वशके द्वारा कहा हुआ वचन सर्वज्ञका बनाया हुआ कार्य है और परिपाटीके अनुसार उमास्वामी आचाका यह " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" सूत्र कार्य है, अन्यथा यानी पदि वचनका कारण यक्ताको न मानोगे तो शब्दनिर्माताके-बोलनेवाले पुरुषके कण्ठ, ताल आदि अवयवोंके हलन, चलन-रूप व्यापारकी शब्दकी उत्पत्तिमे अपेक्षा न होगी यह प्रसङ्ग आवेगा किंतु होती है। ___ तद्वयंग्यत्वातसदपेक्षम् । यहां शब्दको नित्य माननेवाले मीमांसकोंका कहना है कि कण्ठ, ताल आदिसे शाद उत्पन्न नहीं किया जाता किंतु पहिलेसे ही विद्यमान 'शब्द कण्ठ, ताल, मृदंग आदि व्यक्त करनेवाले व्यञ्जकोंसे व्यक्त (प्रकट) किया जाता है, अतः वह वचन उनकी अपेक्षा रखता है। शति चेन्न कूटस्थस्य सर्वथाभिव्यंग्यत्वविरोधात्तदभिव्यक्तव्यवस्थितेः । आचार्य कहते हैं कि मीमांसकोंका उक्त कथन ठीक नहीं है कारण कि, काठमें हद अचल गडी हुयी लोहे की निहाईके समान यदि शब्दको अपरिणामी कूटस्थ माना जावे तो एकांतपनेसे शब्दके आविर्भावपनेका विरोध आवेगा, अर्थात् नित्यपक्षम मी पूर्वकी तिरोभाव अवस्थासे ही शब्दकी अभिव्यक्ति मानी जावेगी तो कथञ्चित् नित्य अनित्यपना आया, सर्वथा ही मित्यका अभिव्यंग्यपना कैसे भी नहीं बन सकता है । अतः मीमांसकोंके मतों उस शब्दके प्रगट होनेकी व्यवस्था नहीं हो सकती है । यद्यपि जैनसिद्धांतमें लुहारकी निहाईको भी प्रतिक्षण परिणामी मान। है, निहाईमें भी अतिशयोंका आना जाना विकार होना सर्वदा चालू है, किंतु दूसरोंके मतसे कूटस्थपनेमें लुहारकी निहाईका दृष्टान्त दिया गया है । सा हि यदि वचनस्य संस्काराधानं तदा ततो मिन्नोऽन्यो वा संस्कारः प्रणेतृव्यापारेणाधीयते ? यद्यभिन्नस्तदा वचनमेव तेनाधीयत इति कथं कूटस्थं नाम ? भिन्नत्पूर्ववबत्तस्य सर्वदाप्यश्रवणप्रसंगः, प्रापश्चाद्वा श्रवणानुषंगः, स्वस्वभावापरित्यागात् । संस्काराधानकाले प्राच्याश्रावणत्वस्वभावस्व परित्यागे श्रावणस्वभावोपादाने च शब्दस्थ परिपामित्वसिद्धिः, पूर्वापरस्वभावपरिहारावारिस्थितिलक्षणत्वात् परिणामित्वस्य । तथा च वचनस्य किमभिव्यक्तिपक्षकक्षीकरणेनोत्पत्तिपथस्यैव सुघटत्वात् ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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