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तत्वार्थचिन्तामणिः
ऐसा विशेषण कहा है। सीपमें चांदीको जाननेवाले ज्ञानमें उत्तर कालमें बाधा उत्पन्न हो जाती है। कि यह चांदी नहीं है किंतु मीप है ।
यदि यहां कोई इस प्रकार कहे कि सीपमे चांदीका ज्ञान या लेजने सर्पका ज्ञान भी बाघक प्रमाणों की उत्पत्ति के पहिले तो बाधकरहित होकर स्वार्थीको जानते ही हैं। भतः उन विपर्यय ज्ञानों को भी उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान बननेका प्रसंग आवेगा, सो यह कटाक्ष भी ठीक नहीं है । क्योंकि हमने सम्यग्ज्ञानके लक्षण में सदा ऐसा पद दे रखा है । इस कारण दोषका कारण हो गया, जो सर्वदा ही बाधाओंसे रहित है, वह सम्यग्ज्ञान होता है । कमी कभी बाधा नहीं होनेका कोई महत्व नहीं है । चोर या व्यभिचारी कभी कभी पाप करते हैं, सदा नहीं। किंतु तादृश माव बने रहने से वे दूषित ही समझे जाते हैं । अणुव्रती नहीं ।
कचिद्विपरीतस्वार्थाकारपरिच्छेदो निश्चितो देशांवरगतस्य सर्वेदा तद्देशमबामुवत: सदा बाघवर्जितः सम्यग्ज्ञानं भवेदिति च न शङ्कनीयम् सर्वत्रेति वचनात् ।
किसी देश में और अर्थ आकारको परिच्छेद करनेवाला निश्वयात्मक विपरीत ज्ञान हुआ और वह मनुष्य तत्काल देशांतरको चला गया तथा सर्वदा जन्मभर भी वह मनुष्य उस देशमें प्राप्त नहीं हुआ | रेलगाडीनें बैठकर चले जाते हुए देवदखको दूरवर्ती फांसो में जलका ज्ञान हुआ उस समय उसको जलकी आवश्यकता भी न भी और दौडती हुयी गाडीसे उतरना भी नहीं हो सकता था जिससे कि जलके प्रदेशमें जानेपर उसको बाधकप्रमाण उत्पन्न हो जाता । पश्चात् उसको उस मार्ग से जानेका कोई प्रसंग भी नहीं आया और न देवदत्तने किसीसे उसकी चर्चा ही की, ऐसी दशा में सर्वदा बाधकरहितपना विशेषण भी घट गया। तब तो यह भ्रमज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाना चाहिये। अंधकार कहते हैं कि इस प्रकार भी शंका नहीं करना । क्योंकि हमने सर्वत्र ऐसा लक्षणमै बोला है । इस कारण उस देशमें नाचा मर्के ही न हो किंतु दूसरे देश जानेकी सम्भावना होनेपर उस व्यक्तिको बाधकप्रमाण अवश्य उपस्थित हो जावेगा । अर्थात् सर्व स्थान बाषकका भाव नहीं रहा ।
कस्यचिदतिमूढमनसः सदा सर्वत्र नाघकरहितोऽपि सोऽस्तीति तदवस्थोऽतिप्रसङ्गः इति चेन, सर्वस्येति वचनात् तदेकमेव सम्यग्ज्ञानमिति च प्रक्षिप्तमनेकधेति वचनात् ।
मम अत्यंत मूर्खता विश्चार रखनेवाले किसी किसी भोंदू मनुष्यके किसी मिथ्याज्ञानमे सर्व काल और सर्वदेशमै बाघकरहितपना भी बन जाता है किसीके जन्मभर और सर्वत्र मिध्याज्ञान होकर उसमें बाक ज्ञान नहीं उपज पाता है। इस कारण वह विपर्ययज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जायेगा । इस प्रकार अतिप्रसन्न दोष वैसा का वैसा ही तदवस्थ रहा। यह कहना भी उचित नहीं है । क्योंकि हमने ज्ञानमें सर्वं जीवों को बाधारहिसपना ऐसा विशेषण दिया है । के आखों को