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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः माना है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यदि बह योगाचार ज्ञानको जानने योग्य संवेद्य आकार तथा जाननेवाले संदः अंश और जाननामक संवित्ति अंश इन तीनों आकारोंसे रहित मानेगा और ऐसा क्षणभै नाशको प्राप्त होनेवाला अंशोंसे रहित वह संवेदन, प्रत्यक्ष, अनुमानसे जानने योग्य स्वभावोंसे दूरवर्ती रहता हुआ यदि किया जावेगा तो उस समय उस संवेदनकी सत्ता सिद्ध नहीं होसकती है । यदि योगाचार उस संवेदनको अपने आप जानने योग्य स्वभाववाला बतावेगा तो किसीको भी उसके ज्ञानमें भ्रांति नहीं होनी चाहिये । स्वयमुपलब्धस्यापि निश्चयाभावाद्विभ्रमः स्यादिति चेत्, कथमनिश्चित स्वतः सिद्ध नाम ? येन वरूपस्य खतो गतिर्व्यवसिष्ठतेति कार्य विष्ठेद्विप्रकृष्टसंशयवादी ? .. यदि योगाचार यहां यों कहें कि स्वयं जानने योग्य पदार्थका भी हम लोगोंको निर्विकल्पक ज्ञान हुआ है, निश्चयात्मक ज्ञान पैदा नहीं हुआ इस कारण लोगोंको भ्रम होजाता है । यों कहनेपर तो हम पूछते हैं कि जिस वस्तुका निश्चय नहीं है वह अकेली अपने आप ज्ञात होकर सिद्ध होजाती है यह कैसे कहा जाय ? जिससे कि आपके यहां संवेदनके स्वरूपका अपने आप ज्ञान होजाता है । यह ग्रंथका वाक्य व्यवस्थित होवे, अर्थात् जब ज्ञान ही का निश्चय नहीं है तो भला ज्ञानके स्वरूपकी बिना कारण अपने आप सिद्धि भी नहीं होसकेगी ऐसी अवस्थामे सराग और वीतरागका बौद्धोंको निर्णय नहीं है । परमाणु, आकाश, भूत, भविष्यत् कालकी वस्तुये और देशान्तर की चीजोंमें भी जिसको संशय ही है ऐसा सभी विप्रकृष्ट पदार्थो संशय बोलते रहनकी रेवको स्खनेवाला विचारा बौद्ध कहां ठहर सकता है ! जो संशयबादी खाद्य, पेय, पदामि तथा निकटवर्ती भूमि, पुत्र, गुरु, आदिकी शक्तियों में भी चलाकर अनिष्ट शक्तियोंका संशय करेगा। ऐसी दशामें क्षणिकवादीका क्षणमे नाश होना अनिवार्य है। . अनायविद्यातृष्णाक्षयादद्वयसंवेदने विभ्रमाभावो न निश्चयोत्पादात् सकलकल्पनाविकलत्वात्तस्येति चेत बौद्धोंका सिद्धांत है कि ज्ञानाद्वैतके ज्ञान ध्रन न होने देनेका कारण अनादि कालसे लगे हुए मिथ्याज्ञान और तृष्णारूपी दोषोंका क्षय है । ज्ञान के विषय निश्चय उत्पन्न होनेसे संवेदन की सिद्धि हम नहीं मानते हैं क्योंकि निश्चयज्ञान निर्विकश्यक प्रत्यक्ष प्रमाणरूप नहीं है, अप्रमाण झानोंसे वस्तुभूत ज्ञानाद्वैतका बेदन और भ्रान्तिरहित व्य स्थापन नहीं होसकता है कारणकि वह परमार्थभूत अद्वैतसंवेरन संपूर्ण कल्पनाओंसे रहित है, अतः ज्ञानाद्वैतका ज्ञान भी निर्विकल्पक है। जैसा कारण होगा वैसा ही कार्य उत्पन्न होसकेगा, आचार्य कहते हैं कि यदि आप बौद्ध ऐस कहेंगे
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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