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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः सा विद्या तृष्णा च यद्युपलभ्यस्वभावा तदा न संवेदनाद्वैतं, तस्यास्ततोऽन्यस्याः प्रसिद्धेः । सानुपलभ्यखभावा चेत्, कुतस्तद्भावाभावनिश्चयो यतो द्वयसंवेदने विभ्रमाविभ्रमव्यवस्था | तो हम आपसे पूंछते हैं कि वे आपकी मानी हुयी अद्वैतसंवेदन के जाननेमें बाधा डालनेवाली अविद्या और संकल्पविकल्पोंको करनेवाली वाञ्छाएँ यदि जानने योग्य स्वभावोंको धारण करती हैं, तब तो आपका केवल अकेले संवेदनकाही मानना नहीं होसकता है, कारण कि संवेदन समान अविद्या और तृष्णा भी दूसरे तीसरे पदार्थ संवेदनसे भिन्न सिद्ध होगये, क्योंकि वे भी जाने जारहे हैं ज्ञात हो रहे पदार्थका सद्भाव मानना पडता है | यदि आप अविद्या और तृष्णाको जानने योग्य स्वभाववाली नहीं मानोगे तो अविद्या और तृष्णा के सद्भाव तथा अभावका निर्णय कैसे होगा ? आपने अविद्या और तृष्णारूप दोषोंसे ज्ञानाद्वैतके जानने में भ्रान्ति होना माना है और अविद्या तृष्णाके विध्वंस होजानेपर ज्ञानाद्वैतकी भ्रांतिरहित जानने की व्यवस्था स्वीकार की है, जबकि वे दोनों दोष ज्ञानसे जानने योग्य ही नहीं हैं तो उनकी सत्ता और असत्ताका निर्णय कैसे हो सकता है ? जिससे कि संवेदनके जानने में झूट या सत्यकी व्यवस्थाकी जावे । निरंशसंवेदनसिद्धिरेवाविद्यातृष्णानिवृत्ति सिद्धिरित्यपि न सम्यक, विप्रकृष्टेरस्वभावयोरर्थयोरेकतरसिद्धावन्यतरसद्भाव सद्भाव सिद्धेरयोगात् कथमन्यथा व्याहारादिविशेषोपलम्भात्कस्यचिद्विज्ञानाद्यतिशयसद्भावो न सिद्धयेत् । बौद्ध कहते हैं कि जानने योग्य घट, पट, स्वलक्षण, परमाणु आदिका सम्बन्धी ग्राह्य अंश और जाननेवाला प्रमाण, प्रमातारूप ग्राहक अंश तथा ज्ञप्ति, प्रमितिरूप संवित्ति अंश इन तीनोंसे रहित शुद्ध संवेदन एक तत्वकी सिद्धि हो जाना ही अविद्या और तृष्णाके अभावकी सिद्धि है । जैसे घटरहित अकेले भूतलका जानना ही घटाभावका ज्ञान है । मन्थकार कहते हैं कि यह भी बौद्धों का कहना अच्छा नहीं है । कारण कि अत्यन्त परोक्ष और प्रत्यक्ष स्वभाववाले दो पदार्थो मैसे एककी सिद्धि होनेपर शेष दूसरेकी सच्चा या असता सिद्ध नहीं हो सकती है, जैसे परमाणु और घटमेंसे एकके जाननेपर शेष बच रहे दूसरेकी सत्ता या असत्ताका निश्चय नहीं हो सकता है, अन्यथा यदि आप संवेदनाद्वैत के जाननेसे ही अविद्या और तृष्णाका अभाव सिद्ध कर दोंगे अर्थाद अविनाभावी एक हेतुसे दूसरे अतीन्द्रियसाध्यका अनुमान कर लोंगे तो विशिष्ट वचनोंका उच्चारण, चेष्टा आदि कार्यों के जानने से किसी आत्मा के विज्ञान और वीतरागता आदि चमत्कारोंका विद्यमान होना क्यों नहीं सिद्ध होगा | जैनोंका अभीष्ट तत्त्व अवश्य सिद्ध हो जावेगा ॥ तदयं प्रतिपसा स्वस्मिन् व्याहारादिकार्ये रागित्वारागित्वयोः संकीर्णमुपलभ्य परत्र
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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