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________________ सत्वार्थचिन्तामणिः रागित्वनियमाभावं साधयति न पुनररागित्वं रागित्वं चेति ब्रुवाणः परीक्षकत्वमभिमन्यत इति किमपि महाद्भुतम्। उस कारण मदनकी सत्ता और अविद्या बाले लामाको मह बौद्ध अच्छी तरह जान रहा है और सराग वीतरागोंके जाननेमें संशय करता है, अपने अनुभव किये हुए वचन चेष्टा आदि कार्योंको रागसहितपने और वीतराग सहितपनेसे मिला जानकर पुनः दूसरे पुरुषोंमें केवल रागीपनेके नियमका अभाव तो सिद्ध करता है किन्तु वीतरागपन और रागीपनेके सद्भावका नियम नहीं मानसा है यों उक्त कहनेवाला बौद्ध अपने परीक्षकपनका अभिमान करता है, हमें तो यह कुछ भी एक बडा भारी आश्चर्य है। यथैव हि रागित्वायतीन्द्रियं तथा सदनियतत्वमपीति कुतश्चित्तत्सायने वीतरागिस्वायतिशयसाधनं साधीयः । ततोऽयमस्य मवचनस्य प्रणेताप्त इति ज्ञातुं शक्यत्वादासमूलत्वं तत्प्रामाण्यनिबन्धनं सिद्धयत्येव । जब कि जिस ही प्रकार रागीपन और वीतरागपन बहिरंग इन्द्रियोंसे जानने योग्य (लायक) नहीं हैं, उसी प्रकार उनके अभावका नियम करना भी अतीन्द्रिय है ।जो पदार्थ इन्द्रियोंके अगोचर है उनका अभाव भी इन्द्रियोंका विषय नहीं है। यों फिर भी किसी कारणसे मनुष्यों में सरागपनेके नियमकी सिद्धि करोगे तो सर्वज्ञता, वीतरागता, तीर्थकरता आदि अतिशयोंका साधन करना भी बहुत अच्छी तरहसे हो सकता है । उस कारणसे अब तक सिद्ध हुआ कि हम सर्वज्ञ वीतरागताका निर्णय कर सकते हैं और यह भी जान सकते हैं कि यह सर्वज्ञ यथार्थ वक्ता ही इस शास्त्रका अर्थरूपसे बनानेवाला है इस कारण इस सूत्रको कारणरूपसे आतमूलक होनेसे आगमप्रमाणपना सिद्ध हो ही जाता है जो कि इसकी प्रमाणताका कारण है । यहांतक सूत्रको आगमप्रमाणपना सिद्ध करनेके प्रकरणका उपसंहार कर दिया गया है। ___अथवानुमानमिदं सूत्रमविनामाविनो मोक्षमार्गत्वलिंगान्मोक्षमार्गधर्मिणि सम्यग्दर्शनादित्रयात्मकत्वस्य साध्यस्य निर्णयात । तथाहि, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षमार्गो मोक्षमार्गत्वान्यथानुपपत्तेः, न तावदत्राप्रसिद्धो धर्मी हेतुर्वा मोक्षवादिनामशे. पाणामविप्रतिपतेः। मोक्षाभाववादिनस्तु प्रति तत्सिद्धेः प्रमाणतः करिष्यमाणत्वात् । __ अब सूत्रको अनुमानप्रमाणरूप सिद्ध करनेका प्रकरण चलाते है । श्रीविद्यानन्दी आचार्य प्रत्येक पदार्थको समीचीन तद्वारा अनुमानसे सिद्ध करते हैं। पूर्व में इस सूत्रका आगमप्रमाणपना भी अनुमान बनाकर सिद्ध किया था। अब सूत्रको अनुमानपना सिद्ध करनेके लिये भी अनुमान बनाते हैं। अथवा यह सूत्र अनुमानप्रमाणरूप है। क्योंकि समीचीनब्यासिवाले मोक्षमार्गस्व-हेतुसे साध्यधर्म
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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