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________________ दंद तत्त्वार्थचिन्तामणिः कारण कि अनुमान प्रमाण परमार्थभूत वस्तुको जानता नहीं है, क्षणिकत्व, सुगतसत्ता, आदि में पडे हुए समारोपोंको केवल दूर करता रहता है, आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध ऐसा कहेंगे तो हम पूंछते हैं कि जिस सुगलकी सत्ता काही निश्चय नहीं है विचारशील पुरुष ऐसे असत् पदार्थकी स्तुति कैसे करते हैं ? इस बातका हमारे चित्तमें बड़ा भारी आश्चर्य है । भावार्थ - अनेक बौद्ध विद्वानोंने आदि अद्याप अनिर्णीत सुगत देवताकी स्तुति क्यों की है ? तथा यदि आप बौद्ध दम लोगों के प्रत्यक्ष, अनुमान से न जानने योग्य ऐसे सूक्ष्म परमाणु, देशान्तरित, और कालान्तरित, पदार्थों का निश्चय नहीं कर सकते हैं तो स्वयं मानी हुयी देवदत्त, जिनदत्त आदिकी ज्ञानसन्तानों को तथा पदार्थोंकी क्षणिकत्वशक्ति और अहिंसा, दान करनेवालोंकी स्वर्ग में पहुंचने की शक्ति आदिकी सत्ताका निश्चय कैसे कर सकोगे ! वे उक्त पदार्थ भी तो अतीन्द्रिय स्वभाववाले हैं और इसी प्रकार कहीं भी निश्चय न करनेपर तो सम्पूर्ण पदार्थों में आपको संशय रहेगा अतः ऐसी दशामें आप सौत्रान्तिकोंको अपने अभीष्ट स्वलक्षण, विज्ञान, क्षणिकत्व, आदि तत्त्वों का निश्चय भी न हो सकेगा ! संवेदनाद्वैतमत एव श्रेयस्तस्यैव सुगतत्वात् संस्तुत्यतोपपत्तेरित्यपरः । 1 यहां योगाचार बौद्ध कहता है कि बहिरंग घट, पट, स्वलक्षण, संतानान्तर आदि पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकते हैं । इसीसे तो हम समीचीन ज्ञानपरमाणुओंका ही अद्वैत मानते हैं । जैसे स्वम मिथ्यावासनाओं के कारण समुद्र, नगर, घन आदिके ज्ञान होते हैं किंतु वहां ज्ञानके सिवाय पदार्थ कोई वस्तुभूत नहीं माना हैं । उसी प्रकार जागते समय घट, पट, आदिके ज्ञान भी कल्पित पदार्थों को विषय करते हैं। वस्तुतः संवेदनके अतिरिक्त संसार में कोई वस्तु नहीं है। वही अकेले संवेदना मंतव्य मानना कल्याण करनेवाला है और वही वास्तवमें बुद्ध भगवान् है इस कारण ग्रंथोंकी आदिमें सुगत शब्दसे संवेदनकी भले प्रकार स्तुति करना सिद्ध माना गया 1 इस प्रकार दूसरे योगाचार बौद्धका मत है । सोsपि यदि संवेद्याद्याकाररहितं निरंशक्षणिकवेदनं विप्रकृष्टखभावं क्रियाचदा न तत्सचासिद्धिः स्वयमुपलभ्यस्वभाव चेन तत्र विभ्रमः । बौद्धोंके चार मेद है, सौत्रान्तिक, योगाचार, वैभाषिक और माध्यमिक ये सर्व पदार्थों को क्षणनाशशील मानते हैं । बाहिरके स्वलक्षण आदि और अंतरंगके ज्ञान, इच्छा, आदि तत्वोंको सौत्रांतिक वस्तुभूत परमार्थ मानते हैं। योगाचार बहिरंग तत्त्वोंको न मानकर कल्पित पदार्थों के ज्ञान और वस्तुभूत ज्ञानके ज्ञानको स्वीकार करते हैं । वैमाषिक निरंश शुद्ध ज्ञानकोही स्वीकार करते हैं और माध्यमिक परिशेषमें शून्यवादपर झुक जाते हैं। यहां योगाचारने अकेले संवेदन कोही तत्व
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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