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________________ तत्त्वाणचिन्तामणिः प्रायश्चित्त देने तथा पढानेमें और कभी धर्मप्रभावनाके समय रागियोंकीसी क्रियाएं करते हैं, जो ईस और सारसके भेदको जानता है, वहीं इनकी कुछ समान क्रियाओंका निरूपण कर सकता है, जब कि यह बौद्ध किसी भी तरह यह निश्चय कर रहा है कि रागरहित महात्मा भी रागीके समान चेष्टा करता है, तो इस बौद्धको शुद्ध वीतरागका निश्चय अवश्य है, यदि ऐसी दशा में भी वीतरागके निश्चय करनेका यह छलसे खण्डन कर रहा है तो इसको मद्यपायीके समान प्रमादी क्यों न कहा जाय । स्वयमात्मानं कदाचिद्वीतरागं सरागवञ्चेष्टमान संवेदयते न पुनः परमिति चेत्, कुतः सुगतसंवितिः कार्यानुमानादिति चेत् न, तत्कार्यस्य व्याहारादेव्यभिचारित्ववचनात् । ___ यहाँ बौद्ध कहता है कि मैं स्वयं कभी कमी रागरहित अवस्थामें अपनेको रागीके समान चेष्टा करता हुआ जानता हूं अतः मैंने अपनेमें व्याप्ति ग्रहण कर वीतरागको सरामके समान चेष्टा करता हुआ कह दिया था किन्तु हमारे पास दूसरे अतीन्द्रिय आत्माओंके जाननेका कोई उपाय नहीं है। इस कारण धीतराग आत्माका निश्चय नहीं हो सकता है । बौद्धोंके ऐसे कहनेपर हम जैन पूंछते हैं कि आपको अपने इष्टदेवता बुद्धका ज्ञान कैसे होता है ? इताओ यदि ज्ञानसन्तानरूप बुद्धके उपदेश देना, भावना भाना, आदि कार्यका ज्ञापक हेतुसे कारणस्वरूप बुद्ध साध्यका अनुमान करोगे ! यह तो ठीक नहीं है क्योंकि उस बुद्धके चेष्टा, वचम बोलना उपदेश देना, जीवोंपर कृपा करना आदि माने गये कार्योंका भी व्यभिचार हुआ कहा जाता है। आपके कथनानुसार ही बुद्धको उक्त क्रियाएँ रागी मूखोंमें भी देखी जाती हैं, एसी मोली बुद्धपनेकी प्रकृतिवाले पुरुष तो रत्न, फाच और पीतल सुवर्णका भी निर्णय नहीं कर सकेंगे। विप्रकृष्टस्वभावस्य सुगतस्य नास्तित्वं प्रतिक्षिप्यते बाधकामावान्न तु तदस्तित्वनिश्चयः क्रियत इति चेत् कथमनिश्चितसशाकः स्तुत्यः प्रेक्षावतामिति साचये नश्वेतः ! कथं वा सन्तानान्तरक्षणस्थितिस्वर्गप्रापणशक्त्यादेः सत्तानिश्चयः स्वभावविप्रकृष्टस्य क्रियेत ? तदकरप्पे सर्वत्र संशयान्माभिमतत्वनिश्चयः । हम बौद्ध सुगतको सिद्ध करनेवाले अनुमानसे हम लोगोंके प्रत्यक्षसे न जानने आवे ऐसे अतीन्द्रिय व्यवहित स्वभाववाले सुगतकी सत्ता सिद्ध नहीं करते हैं, किन्तु अनुमानके द्वारा साध्य विषयों पढे हुए नास्तित्वकी ओर झुकानेवाले संशय, विपर्यय और अज्ञानरूप समारोपका केवल वडन किया जाता है । प्रकृतमें भी कालका व्यवधान पड जानेके कारण सुगतका न होना लोग मान लेते हैं, अतः उस सुगतकी सत्ताका कोई बाधक प्रमाण न होनेसे बुद्धफे नास्तिस्वपनेका हम अनुमान द्वारा खण्डन कर देते हैं । उस सुगतके अस्तिपनेका निश्चय अनुमानसे नहीं किया जाता है
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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