________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
नामादिचतुष्टयं तु न तस्याः प्रतिबंधकम् तस्यात्मखरूपाघातित्वेन कथनात् । न च सर्वधानावृतिरेव सा सर्वदा सत्क्षयणीयकर्म प्रकृत्य भावानुषङ्गात् ।
1
43
तथा नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय मे चार अघातिया कर्म तो उस कर्म-निर्जरा शक्तिका प्रतिबन्ध करनेवाले नहीं है। क्योंकि वे चार अघातिया कर्म आमाके स्वाभाविक अनुजीवी गुणोंको नहीं घात करनेवाले कई गये हैं। वे कर्म तो अमूर्तत्व ( सूक्ष्मत्व) अगुरुलघु, अवगाइन और अव्यावाच इन अमावालक प्रतिजीवी गुणोंके रोकनेवाले हैं। मात्रात्मक शक्तिको नहीं रोकते हैं। तथा इन चार कर्मों का नाश तो चौदहवे गुणस्थानके अन्तमें होता है और वह शक्ति बारहवेंके अन्तमें अपेक्षणीय है ।
यदि चौदह प्रकृतियोंकी निर्जरा करनेवाली उस शक्तिको सर्व प्रकार आवरणोंसे रहित दी मानलिया जावे, सो ठीक नहीं है । क्योंकि तब हो सदा ही उस शक्ति से क्षयको प्राप्त होने योग्य कर्म प्रकृतियों के अभावका प्रसंग हो जावेगा । भावार्थ - - जैन सिद्धांतमें उस निर्जरा शक्तिके पगट होनेपर बारहवे गुणस्थानके अंत में चौदह प्रकृतियोंका नाश होना माना है। यदि वद निर्जरणशक्ति अपने प्रतिबंधक कमसे रहित होती तो आत्मामें स्वभावसे सदा विद्यमान रहनी चाहिये थी । ऐसी चौदह प्रकृतियों का नाश आत्मामें अनादिकाल से ही हो चुका होता। दूसरी बात यह है कि उस शक्तिसे ना होने योग्य कोई कर्म ही न माना जाता । जैसे कि अस्तित्व, द्रव्यत्व, गुण आत्मामें सदैव विद्यमान है । उन्ह गुणोंके द्वारा नाशको माप्त होने योग्य कोई कर्म आस्मा नहीं है । वे सामान्य गुण भी किसी कर्मके नाशसे प्रकट नहीं होते हैं। ये तो शास्वत विकासी हैं।
स्यान्मतं, चारित्रमोहक्षये, तदा विर्भावाच्चारित्र एवान्तर्भावो विभाव्यते । न च क्षीणकषायस्य प्रथमसमये तदाविर्भावप्रसङ्गः कालविशेषापेक्षत्वात्तदाविभावस्य । प्रधानं हि कारणं मोहक्षयस्तदाविर्भावे सहकारिकारण मत्य समयमन्तरेण न तत्र समर्थम्, तद्भाव एव तदाविर्भावादिति ।
यदि किसीका मंतव्य होवे कि चारित्र मोहके क्षय होनेपर ही उस शक्तिका प्रादुर्भाव होता है । अतः चारित्रगुणमें ही उसके अन्तर्भाव करनेका विचार किया गया है, सम्भव है । इसपर कोई यों कहे कि क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानके प्रथम समय में ही चारित्र प्रगट हो जाता है तो चौदह प्रकृतियोंके नाश करानेकी शक्ति भी बारहवेंके पहिले समयमै प्रगट हो जानी चाहिये और केवलज्ञान भी वहीं पर प्रगट हो जाना चाहिये सो यह प्रसङ्ग तो ठीक नहीं है। क्योंकि इस शक्तिके प्रगट होनेको कालविशेषकी अपेक्षा हैं । प्रधान कारण तो उस शक्ति के प्रगट होने में मोहनीय कर्मका क्षय ही है। किन्तु वह मोहका क्षय सहकारी कारण माने गये बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय के बिना उस शक्तिको गट करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि उस सहकारी कारण के होनेपर