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________________ खस्वाचिन्तामणिः ही उस शक्तिका प्रादुर्भाव होता है । प्रत्येक भावकी परिपक्वताके लिये समय चाहिये । तथा विश्राम ले चुकनेपर ही यानी कारणों का पुष्ट, पक्क परिणमन हो जानेपर ही पीछे भारी कार्य किया जा सकता है। कर्मोंके क्षय करने समान कोई बड़ा कार्य नहीं है। इस पुरुषार्थी मात्माको. मध्य मध्यमे विश्राम लेना पडता है । तब कहीं योद्धा मेषके समान क्षयकी टकर दी जाती है। ___ तहि नामाघपातिकर्मनिर्जरणशक्तिरपि चारित्रेऽन्तर्भाव्यते । तन्नापि क्षायिके न थायोपशमिके दर्शने नापि ज्ञाने बायोपयमिके क्षायिकेवा वेनैव सह सदाविभावप्रसंगात् । न चानावरणा सा सर्वदाविर्भावप्रसंगात् संसारानुपपत्ते।। अब मतिज्ञानावरण मादि चौवह मतियों के नाश करनेकी शक्ति चारित्रमें गर्मित की है और यह बारहवेंके अंतसमय तथा उस समयके परिपाक एकस्ववितर्क-वीचारको सहकारी कारण मानकर प्रगट हो जाती है, तब सो नाम आदि चार अघातिया काँकी निर्जरा करानेवाली मात्मीय शक्ति भी चारित्रगुणमें ही अंतर्भूत हो जावेगी। उस कारण क्षायिक सम्यक्त्वमें भी नहीं तथा क्षायोपथमिक सम्यक्त्वों उस शक्तिका अंतर्भाव नहीं होता है | और न क्षायिक ज्ञान अथवा क्षायोपशमिक ज्ञानोमें भी उस शक्तिका गर्म होता है। जिससे कि उन सम्यक्त्व और ज्ञानोंके साथ ही उस अघातिया कोका नाश करनेवाली शक्तिके प्रगट हो जानेका प्रसंग होवे । तभा वह अभातियों का नाश करनेवाली बात्माके स्वभावरूप शक्ति विचारी आवरण करनेवाले काँसे रहित है। यह भी युक्त नहीं है। क्योंकि यदि वह शक्ति प्रतिबंधकोसे रहित होती तो सदा ही मात्मा प्रगट बनी रहती और इस प्रकार आरमाके स्वभाव करके ही अपातियों के नाश हो जानेसे संसार ही नहीं बन सकता था । सर्व ही जीव बिना प्रयत्नके मुक्त बन जाते । अतः उस धक्ति का चारित्रम गर्भ करके चारित्रमोहनीय कर्मको उस शक्तिका प्रतिबंधक मानना चाहिये। यह मन्तव्य अच्छा है। न जानदर्षनावरणान्तरायैः प्रतिबद्धा तेषां ज्ञानादिप्रतिबन्धकलेन तदप्रतिबंधकत्वात् । चारित्रमोहनीय कर्मको उस शक्तिका प्रतिबन्धक नहीं मानकर ज्ञानावरण दर्शनावरण और मन्तराय काँसे प्रतिबन्ध होना मानना भी ठीक नहीं है । क्योंकि वे तीन कर्म तो नियतरूपसे ज्ञान आदिके प्रतिवन्धक है। इस कारण उन चार अधातिया कोको नाश करनेवाली शक्तिके वे प्रतिबन्धक नहीं हो सकेंगे । अर्थात् ज्ञानावरण कर्म आत्माके ज्ञानस्वभावको रोकता है और दर्शनावरण कर्म दर्शनगुणको बिगाढ रहा है तथा अन्तरायकर्म वीर्यगुणका ध्वंस कर देता है। अतः इन कोंके अलग अलग कार्य बटे हुए हैं। किन्तु चारित्रका शरीर बहुत बड़ा है। संसार अवस्थामै भी पहिले चौथे गुणस्थानमें चारित्रगुणका विभाव अनेक संकरपर्यायस्य हो रहा है। एक ही समम आत्मामें चाहें चारों या तीनो कोष मी हैं ! अरति, शोक भी हैं। भय जुगुप्साय
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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