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________________ न देख सकनेके कारण ही वह आमा बहुत जल्दी इस पापमय संसारको छोड़कर चली गई । विश्ववंद्य आचार्यश्रीके हृदयमें प्रबल भावना थी कि इस विश्वकल्याणकारी घर्भका देश विदेशमे प्रचार हो । आपने अपने दिव्य उपदेशसे असंख्य जनताका उपकार किया है। लाखों जैनेतर आस्महितैषी जन, यहांतक प्रमुख अधिकारी गण, राजा महाराजा, आपके चरणोंके दास बन गये हैं, एवं अहिंसाधर्मके भक्त बने हैं। उनकी अगाधविद्वत्तासे सर्वजन मंत्रमुग्धवत् हो गये थे। आचार्यश्रीके ज्ञान एवं लोकहितैषणाका लाभ सर्वदेशोय, सर्वप्रांतीय सर्व संप्रदायके लोगोंको हो, इस उद्देश्यसे ग्रंथमाला के द्वारा उनकी सरल व सुललित कृतियों का प्रकाशन हो गया है। करीब ४० ग्रंथ आजपर्यंत ग्रंथमालाके द्वारा प्रकाशित हुए हैं, जिनसे हजारों स्वाध्यायप्रेमियोने लाभ उठाया है। श्री वंदनीय आचार्य श्रीकी भावनावोंके अनुसार ही आज इस महान् अथका प्रकाशन संस्थाके द्वारा. हो रहा है। इस प्रसंग: इतना ही लिखना पर्याप्त होगा। स्वकीय निवेदन. इस अंधके प्रकाशनका निश्चय होनेपर श्रीधर्मवीर सर सेठ भागचंदजी साहबने यह आदेश दिया कि यह ग्रंथ हमारे ही तत्वावधानमें ग्रंथमालाके द्वारा संपादित व प्रकाशित होजाना चाहिये। श्रीपूज्य पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य महोदयने भी विश्वासपूर्वक आदेश दिया किया कि इस कार्यको तुम ही करो। हमने अपनी अयोग्यताकी उपेक्षाकर केवल गुरुजनोंकी आशाको शिरोधार्य करनेकी भावनासे इस गुरुतरभारको अपने ऊपर लिया। क्योंकि परमपूज्य आचार्य कुंथसागर महाराजका इस सेवकपर परमविश्वास था । श्री पं. माणिकचंदजीसे इस पंक्तिके लेखकको अध्ययन करनेका भी माम्य मिला था। सरसेठ साहनका इसके प्रति परम अनुग्रह है । ऐसी हालतमें इस कार्यकी महत्ताको लक्ष्यमें रखकर मी गुरुजनोंकी भक्ति से इस कार्यमें साहस किया। फिर करना भी क्या था। जो कुछ मी सिद्धांतमहोदधि महोदयने लिपिबद्ध किया था, उसे क्रमबद्ध व्यवस्था में पाठकोंकी सेवामें उपस्थित करना था । उसमें हम कहांतक सफल हुए कह नहीं सकते । परंतु इस प्रसंगमें इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि दृष्टं किमपि लोकेस्मिन्न निर्दोष न निर्गुणम् । आष्णुध्वमतो दोषान्विवृणुध्वं गुणान्बुधाः॥ अंतमै निवेदन है कि हमने बहुत्त सावधान पूर्वक यह प्रकाशन कार्य किया है । इसमें जो गुणके परमाणु हैं, वे सब श्रीआचार्य कुंथुसागर महाराज सरीखे सपोनिधि एवं पं. माणिकचंदजी सदृश विद्वानोंकी आमावोंकी शुभभावनावोंसे निर्मित हैं। अतः उसका श्रेय उन्हीको मिलना चाहिये । यदि कोई दोषका अंश है तो वह मेरी अयोग्यता के कारण उत्पन्न है। उसके प्रति मुझे क्षमा करें। किसी भी तरह इस ज्ञानधाराका उपयोग कर स्वाध्यायप्रेमी अपने ज्ञानतरुको हरामस करेंगे तो सबका श्रम सार्थक होगा । इति. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री. ऑ. मंत्री-आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमाला, सोलापूर विनीत
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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