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________________ तस्वाचिन्तामणिः और योग भी कारण हो रहे हैं और सज्वलन कयायके उदयसे सात, आठवें, नौवे, दशवें गुणस्थानमें बंध हो रहा है। वहां नौ योग भी बंधके कारण हैं । ग्यारहवे बारहवे और तेरहवे गुणस्थानमें केवल योगसे ही एक समयकी स्थितिवाले सातावेदनीयका ही बंध होता है । इस . कारण प्रमाद आदि तीनका असंयम भाव. गर्मित करना ठीक है । क्योंकि असंयममै वे पूर्णरूपसे रह जाते हैं, किंतु संयमी गुणस्थानों में प्रमाद आदि तीन पूरे तौरसे नहीं व्यापते हैं। प्रमादोका अप्रमतको आदि लेकर भागेके गुणस्थानों में अभाव है तथा सज्वलनके मंद, मंदतर, मंदतम, और सूक्ष्म लोमके उदय होनेपर होनेवाली कपायोंका, कषायोंसे रहित होरहे ग्यारहवे आदिमें सम्मव नहीं है और तेरहवें तक बंधके कारण होरहे योगोंकी योगरहित चौदहवे गुणस्थानमें स्थिति नहीं है। इस कारण उन प्रमाद, कषाय और योगोका संया अंतर्भाव करना हमको विवक्षित नहीं है । जिसको आप शङ्काकार समझ नहीं पाये हैं। . प्रतिनियतविशेषापेक्षया तु तेषामसंयमेऽनन्त वाव पञ्चविध एव संघहेतुः मोहद्वादशकक्षयोपशमसहभाविना प्रमादकषाययोगाना विशिष्टानामसंयतेष्वभावात्कषायोपशम. धयमाविनां च प्रमशकायसंयमेवप्यभावात् सर्वेषां स्वानुरूपबंधहेतुत्वामतीघातात् । ___ हां ! उन उन छठे आदि प्रत्येक गुणस्थानों में नियत हुए विशेष विशेष रूपसे होनेवाले प्रमाद, कषाय, और योगविशेषोंकी अपेक्षा होनेपर तो उन प्रमाद आदिकोका हम असंयममें गर्भ नहीं करते हैं। क्योंकि वे असंयतों में पाये नहीं जाते हैं। इस कारण तीन प्रकार न मानकर बंधके हेतु पांच प्रकारके ही इष्ट हैं। जहां बंधके पांच हेतु बतलाये हैं, वहां मिथ्यात्वके उदय होनेपर उतरवर्ती कारण मले ही रह जाये फिर भी मिध्यादर्शन ही प्रधान है । अपिरति शब्दसे अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरणके उदयसे होनेवाले भाव ही लिये गये हैं। प्रमाद पदसे सज्वलन कषायके तीव्र उदय होनेपर होनेवाले पंद्रह प्रमाद पकड़े गये हैं। अविरत जीवोंके अनंतानुबंधी मादि तीन चौकडीके उदयके साथ होनेवाले प्रमादोंकी यहां विवक्षा नहीं है। इसी प्रकार सज्वलनके अतीव मंद उदय होनेपर कषाय हेतुवाल बंध होता है। योगोंमेसे पंद्रहों भी योगोंसे बंध होता है। किंतु ग्यारहवे बारहवे सम्भावित हुए नौ और तेरहवें गुणस्थानमें सात योगोंसे होनेवाले बंधकी विवक्षा है । अतः विशेषममाद आदिकी विवक्षा होनेपर वे असंयतों में कैसे भी गर्मित नहीं होते हैं । अनंतानुबंधी, अपत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण चतुष्टय यों बारह चारित्रमोहनीय प्रकृतियों के क्षयोपशमके साथ होनेवाले छठे आदि गुणस्थानवती विशेष विशेष प्रमाद, कषाय और योगोंका पहिले असपतके चार गुणस्थानों में सर्वथा अभाव है। क्योंकि पहिले दूसरे गुणस्थानों में मोहनीयकी बारह प्रकृतियों के उदय होनेपर साथ रहनेवाले प्रमाद कपाय और योग है तथा तीसरे, चौधेमें - मोहनीयकी उनमें से आठ प्रकृतियोंके उदयके साथ ही प्रमाद आदि तीन हैं । शुभ समाद सादिकोंका असंयतों में समावेश नहीं है और चारित्रमोहनीयकी अप्रत्याख्यानावरण आदि इक्कीस
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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