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वत्या चिन्तामणिः
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सूत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणे मोक्षमार्गः ॥ १॥
जीव आदिक तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और तत्वोंको कमसी, बढती नहीं, किन्तु यथार्थरूपसे जानना सम्पाज्ञान है तथा आत्माका अपने स्वभाव, आचरण करना सम्यकचारित्र है। प्रतिपक्षी कौके आघातरहित इन तीनों गुणोंकी तादात्म्य सम्बन्धसे आत्माके माय एकता हो जाना ही मोक्षका मार्ग है अर्थात् ये तीनों मिलकर मोक्षका एक मार्ग है ।
तत्र सम्यग्दर्शनस्य कारणभेदलक्षणानां वक्ष्यमाणस्वादिहोदेशमात्रमाहः
उन सीन गुणों से पहिले सम्यग्दर्शन के कारण, भेद और लक्षणोंको अग्रिम अन्बमें कहेंगे । यहां केवल नाम कहनेकी परिभाषाको कहते हैं । सुनिये।
प्रणिधानविशेषोत्थद्वैविध्यं रूपमात्मनः।
यथास्थितार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमुद्दिशेत् ॥ १॥
स्वच्छ चित्तकी एकाग्रताके विशेषसे उत्पन्न हुआ है दो प्रकारपना जिसमें ऐसा जैसेके तैसे विधमान होरहे भोंका श्रद्धान करनारूप आत्माके स्वभावको सम्यग्दर्शन कहना चाहिये ।
प्रणिधान विशुद्धमध्यवसाने, तस्य विशेषः परोपदेशानपेक्षत्वं तदपेवत्वं च तस्मादुस्था यस्प तत्प्रणिधानविशेषोत्थम् । विधे प्रकारी निसर्गाधिगमजविकल्पाघस्य तद्विविधम्, तस्य भावो द्वैविध्यम, प्रणिधानविशेषोत्थं वैविध्यमस्येति प्रणिधान विशेषोत्यद्वैविध्यम्, तच्चात्मनो रूपम् ।
इस कारिकाका समास, तद्धिप्त, वृत्तियोंसे स्पष्ट अर्थ करते हैं-प्रणिधानका मय शुद्ध निदोष रूपसे अध्यवसाय करना है। उसकी विशेषता दूसरोंके उपदेशकी अपेक्षा नहीं होनेसे और उन सचे गुरुओंके उपदेशकी अपेक्षा करनेसे दो प्रकार हो जाती है। उस विशेषतासे है उससि जिसकी वह " प्राणिधानविशेषोत्व " हुमा । स्वभावसे उत्पन्न हुए और परोपदेशसे उत्पन्न हुए भेदसे, दो हैं। विध अर्थात् प्रकार जिसके उसको द्विविध कहते हैं । उस द्विविधका जो माद अर्थात् परिणमन है, वह द्वैविध्य है । प्रणिधान विशेषसे उत्पन्न हुआ है वैविध्य इस श्रद्धानका इस कारण यह प्रदान प्रणिधानविशेषोत्पविष्य है ऐसा जो आत्माका स्वरूप है, वह सभ्यग्दर्शन है । परोपवेशके अतिरिक्त जिनमहिमदर्शन, देवऋद्धि दर्शन, वेदना, जातिस्मरण, आदि कारणोंको यहां निसर्ग शब्दसे लिया गया है। यदि निसर्गका मूल अर्थ स्वमाव पकड़ा जाय तो विना कारण समी जीवों के सम्यग् वर्शन उपब जाने का प्रसा माजावेगा ।