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________________ तस्वाचिन्तामणिः ज्ञानादेवाशरीरत्वसिद्धिरित्यवधारणम् । सहकारिविशेषस्यापेक्षयास्त्विति केचन ॥ ४९ ।। यहां कोई प्रतिवादी कह रहे हैं कि सहकारीकी अपेक्षा रखने वाले रत्नत्रयको ही आप जैन मोक्षमार्ग मानते हैं। इसकी अपेक्षासे तो ऐसे नियम करनेमें लाघव है कि विशेष सहकारी कारणोंकी अपेक्षा करके सहित अकेले ज्ञानसे ही स्थूल, सूक्ष्म शरीरसे रहित हो जाना स्वरूप मोक्षकी सिद्धि हो जाओ । इस प्रकार कोई नैयायिक आदि कहते हैं। तत्वज्ञानमेव निःश्रेयसहेतुरित्यवधारणमस्तु सहकारिविशेषापेक्षस्य तस्यैव निःश्रेयससम्पादनसमर्थत्वात् । तथा सति समुत्पन्नतच्वज्ञानस्य योगिनः सहकारिविशेपसानिधानात्पूर्व स्थित्युपपत्तेरुपदेशप्रवृत्तेरविरोधात , तदर्थे रत्नत्रयस्य मुक्तिहेतुत्वकल्पनान!षयाव, तत्कस्पनेऽपि सहकार्यपेक्षपस्यावश्यंभावित्वात् , तत्त्रयमेव मुक्तिहेतु रित्यवधारणं माभूदिति केचित् । यहां उक्त आक्षेपका विवरण यों है कि जीव भादिक तत्वोंका ज्ञान ही मोक्षका हेतु है। इस प्रकार पहिला अवधारण ठीक हो जावे | क्योंकि सम्यक्त्व, चारित्र और आत्मा के विशेष परिणाम रूप विशिष्ट सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखता हुआ वह ज्ञान ही मोक्षके पाप्त कराने में समर्थ है। तैसा कहने पर एक लाम यह भी हो जाता है कि सयोग केवली अईन्त मगवानके फेवलज्ञान स्वरूप सत्वज्ञानके उत्पन्न हो जाने पर भी मोक्षके उपयोगी विशेष सहकारी कारणकी उपस्थिति हो जाने के पहिले अहंसदेवका संसारमें स्थित रहना बन सकता है और हजारों वर्ष तक ठहर कर भगवान् भव्य जीवों के प्रति उपदेश देनेकी प्रवृत्ति कर सकते हैं। कोई विरोध नहीं है । उस उपदेश देनेके लिये स्नत्रयको मोक्षमार्गपनेकी कल्पना करना व्यर्थ है । क्योंकि उन तीनको भी मोक्षमार्गकी कल्पना करने पर आपको सहकारीकी अपेक्षा करनारूप कथन तो आवश्यक होने वाला ही है। इसकी अपेक्षा तो सहकारी कारणोंसे सहित एक ज्ञानको ही मोक्षका मार्ग कहना कहीं अच्छा है। अतः वे तीनों ही मोशके कारण हैं। इस प्रकार आप जैनोंका नियम करना न होवे ऐसा कोई पण्डित कह रहे हैं। तेषां फलोपभोगेन प्रक्षयः कर्मणां मतः । सहकारिविशेषोऽस्य नासौ चारित्रतः पृथक् ॥ ५० ॥ उन प्रतिवादियों के यहां अकेले ज्ञानका विशेष सहकारी कारण यह माना गया है कि मामाको कर्मजन्य सुख, दुःखरूप फलका उपभोग कराकर आत्मासे सम्चित कौका प्रक्षय हो जाना, किंतु फलोंके भोग करके काँका क्षय हो जाना, वह सहकारी कारण तो हमारे जैनोंके माने हुए चारित्रसे भिन्न नहीं है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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